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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ हाताधर्मकथासूत्र तत्र खलु शालीनां बहवः कुडवाः शालिसंभृता बहवः कुडवा अभूवन संजाता, यावत् एकदेशे स्थापयन्ति, स्थपयित्वा संरक्षन्तः संगोपायन्तो विहरन्ति । ततः खलु ते कौटुम्बिकास्तृतीये वर्षा रात्रे महादृष्टिकाये निपतिते सति बहून् केदारोन् सुपरिकर्मितान् यावद् लुनन्ति, लवित्वा संवहन्ति=भाररूपेण तान् बद्ध्वा मस्तके स्कंधेवा निधाय खले स्थापयितुं समानयन्ति. तत्रतोऽपनीय तान्वहन्ति,समुह्यसमानीय 'खलयं ' खलक धान्यमर्दनस्थानं ' करेंति' कुर्वन्ति शालीन् खले स्थापयन्तीत्यर्थः, कृत्वाखले संस्थाप्य ' मलेति' खले प्रसार्यवलीवदर्भदैयन्ति उत्खाक (उखारना) निखात (रोपना रूपक्रिया उन्होंने दो तीन वार की . यावत् धीरे २ उसके पूर्णत पकजाने पर उन्हों ने उसे काट लिया। (जाव चरण तल मलिए करेंति, करेत्ता पुणंति, तत्थणं सालीणं यहवे कुडवा जाव एगदेससि ठाति ठोवित्ता सारवखमाणा संगोवेमाणा विहरंति) यावत् उसे अपने २ पैरों के तलियों से मर्दित किया। बाद में उसे पलालआदि के अपसारण (दूर ) से साफ किया। इस तरह वहां शालियों के अनेक कुडव (घडे ) उन से भर गये। यावत् उन कुडवो (घड़ो) को उन्हों ने ले जाकर पहिले की तरह भंडार में एक तरफ रख दिया। रखकर वे समय २ पर उनकी सारसंभाल भी करने लगे। (तएणं ते कौटुंबिया तच्चपि वासारत्तंसि महा बुडिकायंसि निवइयंसि यहवे केयारे सुपरिकम्मिए जाव लुणे लि, लुणित्ता संवहंति संवहित्ता खलयं करेंति, खलयंकरेत्ता मलेति, जाव बहवे कुंभा जाया) इस तरह धीरे २ समय निकल ने पर जब तीसरी बार वर्षा काल सम्बन्धी રીતે આ ઉત્પાત (ઉપાડવું) નિખાત (રેપવું ની ક્રિયા તેમણે બે ત્રણવાર કરી. સમય જતાં યથાસમયે જ્યારે પાક તૈયાર થઈ ગયે ત્યારે તેઓએ તેને કાપી લીધે. (जाव चरण तल मलिए करेति करेत्ता पुणंति, तत्थणं सालीणं वह वे कुडवा जाव एगदेसंसि, ठाति ठावित्ता सारक्खेमाणा संगोवेमाणा विहरंति) અને “યાવતુ ” તેને પોતાના પગોથી મદિંત કર્યો ત્યાર પછી તેમાંથી ભૂસું વગેરે સાફ કર્યું. આ પ્રમાણે ત્યાં શાલિઓ (ડાંગર) ના ઘણા કુડવ–કળશે -ભરાઈ ગયા. આ રીતે તે કૌટુંબિક પુરુષે એ પહેલાંની જેમ જ શાલિથી પરિપૂર્ણ કળશને કઠોરમાં એક તરફ મૂકી દીધા. યથા સમય શાલિના કળશેની તેઓ સંભાળ પણ રાખતા હતા. (तएणं ते कौटुंबिया तच्चंपि वासारत्तंमि महावुद्धिकायंसि निवइयंसि वहवे केयारे सुपरिकम्मिए जाव लुणेति, लुणित्ता, संघहति संघहिता खलयं, करेंति, खलयं करेत्ता मर्लेति जाव बहवे कुंभा जाया) For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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