SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाताधर्मकथाङ्गसूत्रे विविधप्रकारेण चिन्तयति, 'तं भणियव्वं' तस्माद्भवितव्यमत्र किश्चित्कारणेन मम तातेन श्वसुरेण मह्यं पंच शाल्यक्षता दत्ताः, तत्र कोऽपि हेतुरस्ति । 'तं' तद् तस्मा कारणात् । सेयं ' श्रेयः सुखकरमेतदेव खलु मम 'एए' एतान् पश्च शाल्यक्षतान् संरक्षन्त्याः । संगोपायन्त्याः संवर्द्धयन्त्याः इति निश्चित्य एवं संप्रेक्षते= पर्यालोचयति, संप्रेक्ष्य च कुलगृहपुरुषान् कृषिकर्मनिपुणनिजकुटुम्बपुरुषान् शब्दयति आह्वयति शब्दयित्वा चैवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत् , हे देवानुप्रियाः यूयं खलु एतान् पंचशाल्यक्षतान् गृह्णीत गृहीत्वा 'पदमपाउसंसि' प्रथम प्राषि वर्षाकालप्रारम्भसमये ' महाबुटिकायंसि ' महावृष्टिकाये निवइयंसि समाणंसि' निपतिते सति महावृष्टिरूपेण जलराशि रूपेऽप्काये भूमौ निपतिते सतीत्यर्थः रोहिणीकाने भी विविधरूप से विचार किया। अन्त में इस निष्कर्ष पर वह पहुँची कि श्वसुरजोने जो ये पांच शाल्यक्षत मुझे दिये हैं और इनकी रक्षा आदि करने के विषय में जो मुझ से कहा है सो इसमें कोई न कोई कारण अवश्य है । (तं सेयं खलु मम एए पंच सालि अक्खए सारक्खेमाणीए संगोवेमाणीए संबडेमाणीए त्तिक? एवं संपेहेइ ) इसलिये मुझे यही सुखकर है कि मैं इन पांच शाल्यक्षतों की रक्षा करूँ इन का संगोपन और संवर्द्धन करूँ। ऐसा निश्चय कर उसने यह पूर्वोक्त रूप से विचार किया । ( संपेहित्ता कुलघरपुरिसे सद्दावेह ) विचार कर फिर बाद में उसने कृषिकर्म करने में निपुण अपने कुटुम्ब के पुरुषो को बुलाया । ( सद्दावित्ता एवं वयासी ) बुला कर ऐसा कहा(तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! एए पंच सालि अक्खए गिण्हह गिण्हित्ता पढमपाउसंसि महाडिकायंसि निवइयंसि समाणंसि खुड्डागं केयारं એ નિર્ણય ઉપર આવી કે સસરાએ મને પાંચ શાલીકણે આપ્યા છે અને તેઓની રક્ષા માટે મને જે કંઈ કહ્યું છે તેની પાછળ કંઈને કંઈ કારણ તે ચોકકસ डाg or . (त सेयं खलु मम एए पंच सालि अक्खए सारक्खेमाणीर संगोवेमाणीए सवइढेमाणीए त्ति कटुएवं सपेहेइ) तो भारी सन १२०४ छ કે હું તેઓની રક્ષા કરૂં તેઓનું સંગેપન તેમજ સંવર્તન કરૂં. આ પ્રમાણે शडिया से पांय लिने भाटे पिया ध्या. ( सपेहित्ता कुलघरपुरिसे सहावेइ ) विया२ अरीने तेणे कृषि ४२वामा मेटले थे.वामा यतुर सेवा पोताना अपना भासाने मोवाव्या. ( सहावित्ता एवं वयासी) બોલાવીને તેણે આ રીતે કહ્યું(तुभेण देवाणुप्पिया! एए पंच सालि अखए गिण्हइ गिहित्ता पढम पाउसंसि महावुड्ढिकायांसि निवयसि समाणसि खुडागं केयार सुपरिकम्मिय करेह) For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy