SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३० साताधर्मक थाङ्गस ततः खलु सशुकः शुकनामानगार; अन्यदा कदाचित् अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् 'काले शैलकपुरानगरात् सुभूमिभागादुधानात् प्रतिनिष्कामति प्रतिनिर्गच्छति, प्रतिनिष्क्रम्य प्रतिनिर्गत्य बहिः= बाह्ये जनपदविहारं विहरति । ततस्तदनन्तरं खलु स शुकोऽनगारोऽन्यदा कदाचित्-अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले तेन-पूर्वोक्तेन स्वशिष्येण अनगारसहस्रेण साधं संपरितृतःपूर्वानुपूा तीर्थंकरगणधरपरंपरया चरन् ग्रामानुग्रामं विहरन् यत्रैव पुण्डरीक-पुण्डरीकनाम्नाप्रसिद्धः पवतः यावत् तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य पुण्डरीकं पर्वतमारुह्य पृथिवीशिलापट्टकं प्रतिलेख्य लिये पायक प्रमुख आदि ५०० सौ अनगारों को शिष्य रूप से वितरित कर दिया। (तएणं से सुए अन्नया कयाई सेलगपुराओ नयराओ सुभूमिभागाओ पडिनिक्खह, पडिनिक्खमित्ता यहिया जणवयविहारं विहरइ,) इस के बाद किसी एक समय वे शुक अनगार शैलक पुर नगर से और उस सुभूमिभाग नाम के उद्यान से निकले और निकल कर उन्हों ने वहां से बाहर जनपदों की ओर विहार कर दिया। (तएणं से सुए अणगारे अन्नया कयाइं तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपडिबुडे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणु गाम विहरमाणे जेणेव पोंडरीए पव्वए जाव सिद्धे ) ग्रामानुग्राम विहार करते २ वे किसी एक समय उस अपने शिष्य अनगार सहस्र के साथ तीर्थकर, गणधर परंपरा के अनुसार चारित्र की आराधना करते हुए जहां पुंडरीक नाम का प्रसिद्ध पर्वत था वहां आये वहां आकर उन्हों ने वहां के पृथिवी शीलापट्टक की प्रतिलेखना की प्रतिलेखना कर के फिर उन्हों ने उस आशेने शिष्य ३थे माया. (तएण से सुए अन्नया कयाई सेलगपुराओ नयराओ सुभूमिभागाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहार विहरइ ) ત્યાર બાદ કેઈ એક વખતે શુક અનગર શૈલકપુરના સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનથી मा२ नीतीने त्यांथी मान भी पहोभा विडा२ . ( तएण से सुए अणगारे अन्नया कयाई तेण अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपडिबुडे पुवाणुपुरि चरमाणे गामाणुगाम विहरमाणे जेणेव पोंडरीए पव्वए जाव सिद्धे) शु परि. વ્રાજક એક ગામની બીજે ગામ વિહાર કરતાં કરતાં કઈ વખતે પિતાના એક હજાર અનગાર શિષ્યોની સાથે તીર્થકર, ગણાધરની પરંપરાને અનુસરતાં ચારિત્રની આરાધના કરતાં કરતાં ક્યાં પુંડરીક નામે પ્રસિદ્ધ પર્વત હતો ત્યાં ગયા. પહોંચીને તેમણે ત્યાં પૃથિવી શિલાપટ્ટકની પ્રતિલેખન કર્યા પછી તેમણે તેના ઉપર પિતાના એક હજાર શિવ્યાની સાથે પાદપિગમન For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy