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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ शुकपरिवाजकदीक्षानिरूपणम् ' तरणंसे इत्यादि. 1 टीका - ततस्तदनन्तरं खलु स शुकः परिवाजकः स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य एवं वक्ष्यमाण प्राकारेणावादीत् इच्छामि खलु भदन्त ! परिवाजकसहस्रेण सा संपत देवानुमियाणामन्तिके मुण्डो भूत्वा मत्रजितम् । भवतां समीपेऽहं परित्रात्रेण सह केशोल्लुञ्चनेन मुण्डो भूत्वा दीक्षां ग्रहीतुमिच्छा मीत्यर्थः । ततः स्थापत्यापुत्रोऽवादीत् - हे देवानुप्रिय यथासुखं यावत् = ईप्सित कार्ये दीक्षाग्रहणरूपे विम्बं मा कुरु इत्येवमुक्तः सन् शुकः परिवाजकः यावत् ११३ तणं से सुए परिव्वायर इत्यादि टीकार्थ - (ए) इसके बाद (से सुए) उस शुक (परिव्वायए) परिव्राजकने (धावच्चात्तस्स अंतिए धम्मं सोच्या ) स्थापल्यापुत्र अनगार के मुख से श्रुत चारित्र रूप धर्मका श्रवण कर ( णिसम्म ) उसे हृदय में अवधारित कर ( एवं व्यासी) उन से इस प्रकार कहा - ( इच्छामिण भंते । परिव्वापगस हस्से णं सद्धि संपरिवुडे देवाणुप्रियाणं अंतिए मुडे भविता पत) हे भदंत । मैं आप देवानुप्रिय के पास इन १ एक हजार परिव्रजको के साथ २ मुंडित होकर दीक्षित होना चाहता हूँ ( अहासुहं जाव उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए निदंडयं जाव धाउरत्ताओ य एते एडेड, एडित्ता सयमेव सिंह उप्पाडेड उप्पाडिता जेणेव धावच्चापुते तेणेव उवागच्छइ ) शुरु परिव्राजक की इस भावना को जान कर स्थापत्यापुत्र अनगार ने उससे कहा हे देवाणुप्रिय । तुम्हे जैसे सुख हो वैसा करो - इच्छित कार्य जो दीक्षा ग्रहण है उसमें तुम For Private And Personal Use Only (तरण से सुए परिव्यायए इत्यादि ) अर्थ - (तपण ) त्यार माह से सुए ) शुः (परिव्यायए) परिवार ( थावच्चा पुत्तम्स अतिए म सोच्चा ) स्थापत्यापुत्र अनगारना श्री भुख थी श्रुत्र शास्त्रि ३५ धर्म श्रणु उरीने ( णिसम्म ) तेने सारी पेठे हृदयमा अवधारित उरीने ( एवं वासी ) तेमने या रीते ऽधुं - ( इच्छामि ण भंते ! परिव्वायसाहस्सेसद्धिं सपरिपुडे देवाणुप्रियाणं अतिए मुडे भवित्ता पव्व इत्तए ) हे लढत ! तभारी पाथी : उन्नर परिवार अनी साथै हुँ' भुडित थाने हीक्षित थवा शाहू छु . ( अहासुह जाव उत्तर पुरत्थिमे दिसीमाए तिङ'ड' जाव धाउरताओ य एगते एडेइ एडित्ता सयमेत्र सिंह उपडे उत्पादिता जेणेव थावच्चापुत्ते तेणेव उवागच्छइ) शुरु परित्रानी हीक्षित थवानी छा સાંભળીને સ્થાપત્યાપુત્ર અનગારે તેમને કહ્યું હે દેવાનુપ્રિય ! તમને જેમ ગમે તેમ કરી ઇચ્છિત કાર્યમાં એટલે કે દીક્ષાગ્રહણ કરવામાં માડુ' કરેા નાહ આ રીતે In ७७
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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