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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ शाताधर्मकथासूत्रे ये ते 'अणेसणिज्जा' अनेषणीयास्ते खलु अभक्ष्याः । तत्र खलु ये ते 'एसणिज्जा' एपणीयाः, ते द्विविधा प्राप्ताः-तद् यथा-लब्धाश्च अलब्धाश्च । तत्र खलु ये तेभलब्धास्ते अभक्ष्याः । तत्र खलु ये ते लब्धास्ते श्रमणानां निर्ग्रन्थानां भक्ष्याः हे शुक ! एतेनार्थेन-उक्तरूपेण अर्थेन उक्तार्थमादायेत्यर्थः, एवमुच्यते 'सरिसवया' सरिसवयशब्दवाच्या अर्था भक्ष्या अपि अभक्ष्या अपीति ।। ___एवं कुलत्या वि भाणियव्या' एवं उक्तधकारेण कुलस्था अपि भणितव्याः, ' नवेरं' विशेषः इदं नानात्वं स्त्रीकुलस्थाश्च धान्यकुलत्थाश्च । स्त्रीकुलस्था स्त्रिविधा योग्य नहीं हैं। प्रातुक धान्य सरिसवय दो प्रकार के हैं जैसे याचित और अयाचित । इन में भी जो अयाचित हैं वे अभक्ष्य हैं- श्रमण निर्ग्रन्थों को खाने योग्य नहीं हैं। याचित एषणीय और अनेषणीय के भेद से दो प्रकार के हैं ( तत्थणं जे ते अणेसणिज्जाते णं अभक्खेया) इन में जो अनेषणीय धान्य सरिसवय हैं वे अखाद्य हैं । (तस्थणं जे ते एसगिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता लद्धाय अलद्धाय, तत्थ ण जे ते अलद्धा, ते अभक्खेया, तत्थ णं जे ते लद्धा ते समणाणं निग्गंधाणं भक्खेया) जो एषणीय सरिसवय हैं वे लब्ध और अलब्ध के भेद से दो प्रकार के हैं- अलब्ध अभक्ष्य और लब्ध श्रवण निर्ग्रन्थों को भक्ष्य हैं । ( एएणं अटेणं सुया एवं बुच्चति-सरिसक्या- भक्खेया वि अभक्खेया वि एवं कुलत्था वि भाणियव्या ) हे शुक! सरिसवय पद के इन पूर्वोक्त अर्थों को लेकर ऐसा मैं कहता हूँ कि सरिसवय भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। इसी तरह " कुलस्था" के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिये। (णवरं इमं नाणत्तं) परन्तु इस में इस तरह विशेषता પ્રકાર છે-યાચિત અને અયાચિત, આમાં અયાચિત સરિસવય અભક્ષ્ય ગણાય છે. શ્રમણ નિર્ગથે આહારમાં અયાચિત સરિસવયને પ્રયોગ કરતા નથી. ( तत्थण जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता लद्धा य अलद्धाय, तत्थण जे ते अलद्धा, ते अभक्खया, तत्थण जे ते लद्धा ते समणाण निग्गंधाण भक्खेया) એષણીય (ઈચ્છનીય) સરિસવયના લબ્ધ અને અલબ્ધ બે પ્રકારે છે નિર્ગ" ને માટે અલબ્ધ સરિસવય (સરશિયું ) અભક્ષ્ય છે અને લબ્ધ સરિતવય लक्ष्य छे. (ए ए ण अटेण सुया एवं वुच्चंति सरिसवया भक्खेया वि अभक्खया वि एवं कुरुत्था वि भाणियव्वा) 3 शु! २॥ प्रमाणे सरिसक्य ने पूर्वरित રીતે અર્થ સ્પષ્ટ કરતાં તેને ભક્ષ્ય અને અભક્ષ્ય આમ બંને રીતે કહી શકાય या शते 'त्या' ना विष पर सम से नये. (णवरइम नाणत) For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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