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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० ज्ञाताधर्मकथासूत्रे मित्र वयसः, धान्यसर्षपकाश्च । ' सरिसवया ' इत्यस्य द्विविधोऽर्थः सदृशवयसः सर्षपकाचेति । तत्र सदृशवयसो मित्ररूपाः सर्षपकास्तु धान्यरूपा इति भावः । तत्र खलु ये ते मित्र सदृशवयसः = मित्ररूपाः समानवयसस्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः प्रतिबोधिताः तद् यथा - ' सहज यया ' सहजातकाः समानकालजन्मानः, " सहवडियया सह वर्धितकाः समानकाले वृद्धिं प्राप्ताः, 'सह पंसुकीलिया' सह पांसु क्रीडितकाः सहैव धूलिक्रीड़ाकारिणचेति । वे सर्वे मित्ररूपाः सदृशवयस्काः खलु श्रमणानां निर्ग्रन्यानामभक्ष्याः भोक्तुं न कल्पन्ते । तत्र खलु ये ते धान्यसर्षप दो प्रकार से प्रज्ञप्त हुआ है -१ मित्रसरिसवय दूसरा धान्य सरिसवय - | सरिसवय शब्द की सदृशवय " और सर्षपक " इस प्रकार संस्कृत छाया होती है। जब सदृशवय - समान आयुवाले मित्रजन - ऐसा छायार्थक " सरिसवय " पद लिया जाता है-तब उस पक्ष के अनुसार सरिसवय अनक्ष्य है ऐसा अर्थ बोध होता है - तथा सर्षपक छायोर्थक जब सरिसवय पद लिया जाता है तब " सरिसवय " भक्ष्य भी है ऐसा अर्थबोध होता है । इसी विषय को अधिक और स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि - ( तत्थ णं जे तं मित्त सरिसवया तेतिविहा पनन्ता, जहा - सह जायया सह संवडियया, सहपंसुकील या ते णं समणाणं निग्गंधाणं अभक्खेया ) इनमें जो मित्र सरिसवय हैं वे तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हुए हैं- जैसे सह जातक, सहवर्धितक, सह पांसुक्रीडितक अपने साथ जिनका जन्म हुआ हैं वे सहजातक हैं । अपने साथ २ जो वृद्धि को प्राप्त हुए हैं वे सहवर्धित हैं । तथा जो भित्र, सरिसवय, २ धान्य, ' सरिसवय. ' शम्हनी संस्कृत छाया १, सदृशवय, અને ૨, સ`પક એ રીતે થાય છે. જ્યારે સર્વિસય ને શશવય' ( સર ખી આયુષ્ય ધરાવનારા મિત્ર જન ) આવે અથ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે ત્યારે ‘ સરિસય ’અભક્ષ્ય છે આવા અર્થ જણાય છે તેમજ · રિસય ’ પદ સપક ( સરશિયું ) અર્થાંમાં લેવાય છે ત્યારે તે ભક્ષ્ય છે આવા પણ अर्थ थाय छे. भेज वातने विशेष स्पष्ट ४२तां सूत्रार डे छे हैं ( तत्थण' जेत' मित्त सरिसवया ते तिविहा पन्नत्ता, तजहा - सहजायया, सहसंवड्ढियया, सहप सुकीलियया तेण समणाण निग्ग थाण अभक्खेया ) सभां न्यारे सरिसवय શબ્દના અર્થ મિત્ર હાય છે, ત્યારે તેના ત્રણ પ્રકાર સમજવા જોઇએ જેમકે १, सडेन्नत, २, सडवर्धित, मने 3, सडयांसुङीडित आपली साथै જન્મ લેનાર સહજાતક કહેવાય છે. આપણી સાથે મેાટા થનાર સહધિત For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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