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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाताधर्मकथागरले स्थापत्यापुत्रः कथयति-हे शुक ! यापनीयं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद् यथा इन्द्रियया यनीयं नोइन्द्रिय यायनोयं च. । शुको बूते-अथ किं तद् इन्द्रिययापनीयम्. ? । स्थापत्यापुत्रः समाधत्ते-'सुया ! इत्यादि । हे शुक ! यत्-यस्मात् कारणात् खलु मम श्रोत्रेन्द्रि-चक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-जिहूवेन्द्रि-स्पर्शेन्द्रियाणि निरूपहतानि वशे वर्तन्ते, तद् इन्द्रिययानीम् इन्द्रियाणां वशीकरणं मम वर्तते. । 'तं' इतिवाक्यालङ्कारे, एवमन्यत्रापि । दशमें उद्देशक में सोमिल ब्राह्मण से कही है । (से कि त भंते जवणि. ज्ज) हे भदंत! यापनीय शब्द का क्या अर्थ है ? (सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते तं जहा-इंदियजवणिज्जे य णो इंदियजवणिज्जे य) इस प्रकार शुक परिव्राजक के पूछने पर स्थापत्यापुत्र अनगार ने उसे समझाया कि हे शुक ! यापनीय दो प्रकार का कहा हुआ है -जैसे १ इन्द्रि योपनीय २ नो इन्द्रिय यापनीय । (से किं तं इंदियजवणिज्ज) इन्द्रिय यापनीय का क्या स्वरूप है इस प्रकार शुक के पूछ ने पर स्थापत्या पुत्र ने कहो (सुया ! जन्नं ममं सोइंदिय चक्खिदिय जिभिदिय फासिदियाई निरुवहयाई वसे वटुंति, से तं इंदियजवणिज्ज ) शुक! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्रागइन्द्रिय, जिह्वाइन्द्रिय, स्पर्शनइन्द्रिय निरुपहत बन कर जो मेरे वश में हो रही हैं यहीं इन्द्रिय यापनीय हैं अर्थात् विना किसी बाधा के अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होने पर भी ये पांचो इन्द्रियां जो मेरे वश में वर्त रही हैं यही (से कि त भते जवणिज्ज) 3 महन्त ! याचनीय शहन अर्थ शुछ १ (सुया ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते त' जहा इंदियजवणिज्जे य णो इंदिय जवणिज्जे य ) शुपरिवा४४ना प्रश्न सोमणीन स्थापत्यापुत्र मनगारे तेने સમજાવતાં કહ્યું કે-હે શુક! યાપનીયના બે પ્રકારે કહ્યાં છે. (૧) ઈન્દ્રિય યાપક नीय मन (२) नन्द्रिय य ५नीय (से किं त ईदियजवणिज्ज) धन्द्रिय યાપનીયનું સ્વરૂપ શું છે? શુક પરિવ્રાજકના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં સ્થાપત્યા પુત્રે -(सया! जन्न मम सोई दिय चक्खिदिय जिभि दियफासिं दियाई निरुवह याई वसे वदति, से तं इंदियजवणिज्ज) 3 शु! श्रोत्रेन्द्रिय, यक्ष छन्द्रि ઘાણ ઇન્દ્રિય, જિ હા ઇન્દ્રિય, સ્પર્શ ઈન્દ્રય, નિરુપહત થઈને મારા વશમાં તેજ ઇન્દ્રિય યાપનીય છે. એટલે કે કોઈપણ જાતના વાંધા વગર વિષયને ગ્રહણ કરવાની તાકત હોવા છતાં એ પાંચે ઈન્દ્રિયે મારે વશ થયેલી છે તેજ For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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