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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंजगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ सुदर्शनश्रेष्ठीवर्णनम् भंते !' हे भदन्त ! ते तव यात्रा वर्तते ? ' जवणिज्ज ते ' यापनीयं ते तव वर्तते ?, ' अब्बावाहं पि ते ' अव्याबाधमापि ते वर्तते ?, 'फासुयविहारं ते ' मासुक विहारस्ते तव वर्तते ?। ___ ततस्तदनन्तरं स स्थापत्यापुत्रः शुकेन परिव्राज केनैव मुक्तः सन् शुकं परिब्राजकमेवमयादीत्-हे शुक ! ' जत्ता वि मे' यात्राऽपि मे ममाऽस्ति, ' जवणि ज्जंपि मे' यापनीयमपि मे ममारित, ' अव्यावापि मे' अव्यावाधमपि मे मम वर्तते, 'फासुयविहारं पि मे' मासुक बिहारोऽपि मे ममाऽस्ति । ततस्तदनन्तरं खलु स शुकः स्थापत्यापुत्रमेवमवादीत् किं भंते ! जत्तो' का भदन्त यात्रा हे भदन्त ! का=किं स्वरूपा तव यात्रा ?। स्थापत्यापुत्र अनगार था वहां गया। (उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं बयासी) वहां जाकर उसने स्थापत्यापुत्र से ऐसा कहा-(जत्ताते भंते ! जवणिज्जं ते अव्वाराहं पि ते फायविहारं ) तो हे भदंत ! आपकी यात्रा है क्या ? आपके यापनीय है क्या? आपके अव्यायाध है क्या? आपके प्राप्तुक विहार है क्या ? (तएणं से थावच्चापुत्ते सुएणं परिवायगेणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्यायगं एवं वयासी) इस प्रकार शुक परिव्राजक से पूछे गये उन स्थापत्यापुत्र अनगार ने उसशुक परिव्राजक से ऐसा कहा-(सुया ! जत्ता वि मे, जवणिउजंपि में अव्वाबाहंपि में फासुयविहारंपि में) हे शुक हमारा यात्रा भी है, यापनीय भी है हमारा अन्यायाध भी है हमारे प्रासुक विहार भी है। (तएणं से सुए थावच्चापुत्तं एवं क्यासी) जय स्थापत्यापुत्र अनगार ने शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहा-तय उसने स्थापत्यपुत्र अनगार ( उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं वयासी) त्यां धन तेणे स्थापत्यापुत्र ने ॐधु-(जत्ता ते भंते ! जवणिज्जते अव्वाबाहं पि ते फासुयविहार) महन्त ! શું તમારી યાત્રા છે ? યાપનીય છે? આવ્યાબાધ છે? તમારે પ્રાસુક विहा२ छ ? (तएणं से थावच्चापुत्ते सुरणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणेसुयं परिवायगं एवं वयासी) शु४ परिवानी मा पात सलमान स्थापत्यापुत्र सनगारे शु४ परिवाने ४थु-(सुया ! जत्ता वि मे जवणिज्जंपि में अव्वा वाईपि में फासुयविहार पि में) 3 शुॐ ! समारी यात्रा ५५ छ, यापनीय ५ छ, मायामा ५४ छ. भने अमारे पासु विडार ५५५ . ( तएण से सुर थावच्चापुत एवं वयासी) न्यारे २.५त्या पुत्र मानारे शुभ પરિવ્રાજકને આ પ્રમાણે કહ્યું, ત્યારે સ્થાપત્યા પુત્ર અને મારે તેમને કહ્યું-( જિ. For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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