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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६९० ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे कुर्वन्तु खलु देवानुपियाः किं-कथमिहागमनप्रयोजनं जातं ? ममोपरि भवद्भयां महती कृपा कृता यतो मद्गृहे भवन्तौ समागतौ ततस्तदनन्तरं तो सार्थवाह. दारको देवदत्तां गणिकां प्रत्येवमवादिष्टाम् ‘इच्छामोणं' आवामिच्छावः खलु देवानुप्रिये युष्माभिः साद्धं सुभूमिभागस्योद्यानस्योद्यानश्रियं प्रत्यनुभवन्तौविहत्तम् त्वया सार्द्धमावामुपवनदर्शनादिसुखं कर्नुमिच्छावोऽतस्त्वमावाभ्यां सार्द्ध मागच्छ, इति भावः। ततस्तदनंतरं खलु सा देवदत्ता तयोः सार्थवाहदारकयो. रेतमर्थ प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य स्नाता स्नानानन्तरं कृतकृत्या 'किं ते' किं तेन अलं तेन वर्णनेन 'पवरपरिहिया' प्रवरपरिहिता-प्रवरं यथा स्यात्तथा परिहिता, वस्त्रपरिधानकलाऽभिज्ञतया सुष्टुपरिधाना यावत् श्रीसमानवेषावेषत्रिया साक्षाल्लक्ष्मीवत् प्रनिभासमाना यत्रैव सार्थवाहदारको तत्रैव समागता |मू.८१ प्पिया ! किमिहागमणप्पओयणं) हे देवानुप्रियो ! कहिये किस प्रयोजन से यहां आना हुआ है ? (तएणं ते सत्यवाहदारगा देवदत्त गणियं एवं क्यासी) देवदत्तागणिकाकी ऐसो बात सुनकर उन दोनों सार्थवाह पुत्रोंने उससे ऐसा कहा-(इच्छामो णं देवाणुप्पिए ! तुम्हेंहिं सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुभवमागा विहरित्तए) हे देवाणुप्रिय हमलोग यह चाहते है कि तुम्हारे साथ मुभूमिभाग उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरण करें। (तएणं सा देवदत्ता तेसि सत्यवाहदारगाणं एयमपडिसुणेइ) इसके बाद उस देवदत्ताने उन सार्थवाहदारकों के इस कथन रूप अर्थ को स्वीकार कर लिया। (पडिमुणित्ता हायो कयकिच्चा किं ते पर जान सिरिसमाण वेसा जेणेव सत्यवाहदारगा तेणेव समागया) इसके पश्चात उसने स्नान किया स्नान कर वह कृत कृत्य हुई अब इस विषय में और हैवानुप्रियो ! माज्ञा ४२॥ २४थी मह ा५ ५धार्या छ. (तएण ते सत्यवाहदारगा देवदत्तं गणिय एवं वयासी) गणुि। वत्तनी पात सivीन तेमाये --(इच्छामो णं देवाणुप्पिए! तुम्भेहिं सद्धिं सभूमिभागस्स उजाणम्स उजाणमिरि पचणुभवमाणा विहरित्तए) देवानुप्रिये ! तमाश સાથે સુભૂમિભાગ ઉદ્યાનનું સૌદર્ય પાન કરતાં કરતાં ત્યાં વિહાર કરીએ એવી અમારી ४२छ। छ. (तएणं सा देवदत्ता तेसिं सत्यवाहदारगाणं एयमढें पड़िसुणेइ) त्यारे हेवहत्तामे सार्थवाह पुत्रोनी बात स्वीरी सीधी. (पडिमुणित्ता हाया कय किच्चा किंते पवर जाव सिरिसमाणवेसा जेणेव सत्थवाहदारगा तेणेव समागया) त्यार आ४ वहत्ताये स्नान यु भने स्नान ४ा पछी मा विषे For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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