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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ.१सूत्र. ४९ मेघमुनेः संलेखना निरूपणम् . ९६७ ष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणां करोति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वंदित्वा नमस्यित्वा स्वयमेव पञ्चमहाव्रतानि आरोहति गृह्णाति, आरुह्य गौतमादीन् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् निर्ग्रन्थीश्च क्षामयति, क्षामयित्वा तथारूपै. 'कडाईहि' कृतादिभिः स्थविरैः साद्धं विपुलं = विपुलनामकं पर्वतं शनैः शनैः दूरोहति, दुरुह्य स्वयमेय मेघधनसंनिकाश पृथिवी शिलापट्टकं प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य उच्चारण्स्रवणभूमि प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य दर्भसंस्तारकं संस्तारयति संस्तीर्य दर्भसंस्तारकं दुरोहति दुरुह्य पौरमहावीर से आज्ञापित होते हुए (इजावहियए) बहुत अधिक आनन्द से तथा संतोष से पुलकित हृदय हुए । बाद में (उठाए उटूडे) उत्थान क्रिया से उठे और (उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुनो आयाहिणं पयाहिणं. करेइ) उठेकर उन्होंने श्रमण भगवान महावीर की तीनवार विधिपूर्वक वन्दनां कर (करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेवपंचमहन्धयाइं आरुहइ आरुहित्ता गोयमाइसमणे निग्गथे, निग्गंधीओ य, खामेइ, ग्वमित्ता य तहाख्वेहि कडाईहिं थेरेहि सद्धिं विउलं पव्वयं सणियरदुरूहह) वंदना नमस्कार करके फिर उनने गौतमादिक निग्रन्थ साधुओं से तथा निर्ग्रन्थी साध्वियों से खमत खामणाकिया। फिर तथारूप कृतादि स्थविर साधुओं के साथ विपुल नामके पर्वत पर वे धीरे२ चढ गये। (दुरुहित्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ) चढकर के वहां उन्होंने स्वयं घनीभूत मेघ के समान श्याम पृथिवीरूप शिलापट्टक की प्रतिलेखना की (पडिलेहिता वारनी भासा मेणवतi (हट जाव हियए)म मान भने सतपथी पुति यई आया. त्यार पछी (उठाए उठेइ) उत्थान मियाथी मा यया भने (उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ) SAL थन तेभाणे त्र श्रभार मावान महावीरनी विधि पहना री (करिता वंदह, नमसइ, वंदित्ता . नमंसित्ता सयमेव पंचमहब्बयाई आरुहइ आरुहित्ता गोयमाइ समणे निग्गंधे निग्गंधीओ य खामेइ खामित्ता य तहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धि विरल पञ्चयं सणियं२ दुरुहइ) वहन भने नभा२ शेने तेभ गते पयवताना સ્વીકાર કર્યો, સ્વીકાર કર્યા બાદ તેમણે ગૌતમ વગેરે સાધુઓ અને નિર્ચથી સાધ્વીઓથી ખમતખામણુ કર્યા. ત્યાર પછી તથારૂપ કૃતાદિ સ્થવિર સાધુઓની સાથે ધીમે ધીમે વિપુલ नाम५ ५२ यही गया. (दुरूहिता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिले हेइ) यीने त्यां तमो धनीलत मेघना वा श्याम पृथ्वी३५ शिEt. पनी प्रतिanu 30. (पडिलेहिता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेद, पडि For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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