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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साताधर्मकथा मूत्रे स्त्याभिमुखः संपर्यङ्कनिषण्ण: पद्मासनेनोपविष्टः करतलपरिगृहीतं शर आरत मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा एवमवदत्-'नमोऽत्युगं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपनाणं नमोऽन्धुणं समणम्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स' मम धम्मायरियस्स” नमोऽस्तु खलु अद्भयो भगवद्भयः यावद् संप्राप्तभ्यः नमोस्तु खलु अमणाय भगवते महावीराय यावत् संप्राकामाय मम धर्माचार्याय । वंदे खलुभगवन्त तत्रगतम्-तत्र गुण शिलके चैत्ये, गत स्थितम् इह गतः इह-अत्र-पृथिवीशिलापट्टकेऽहंगतः स्थितोऽस्मि,पश्यतु मां भगवान् तत्र उच्चारपासवणभूमि पडिलेहह, पडिले हित्ता दम्भ संघरगं संयरइ संथरिचा दब्भ संथारगं दरुहइ) प्रतिलेखना करके फिर उन्होंने उच्चार और प्रस्रवण की भूमि की प्रतिलेखना की। इसकी। प्रतिलेखना करके फिर उन्होंने उस पर दर्भ के संथारे को विछाया। बिछाकर फिर वे उस पर बैठे और (दुरुहित्ता) बैठकर (पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्त मत्थए अंजलि वह एवं वयासी) पूर्व दिशा की तरफ मुख करके पद्मासन से बैठ गये और दोनों हाथों को जोड कर उसे मस्तक पर रखकर इस प्रकार बोले(नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं, णमोत्थुणं समणरस भगवओ महावीररस जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स बंदाभि) अरहंत भगवन्तों को नमः स्कार हो मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो । इत्यादि पाठ को बोलकर (वंदामिणं भगवंतं तत्थगयं इहगए पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयंत्ति कटु वंदइ नमसइ) फिर उन्होंने ऐसा कहा-गुणशिलक चैत्य में विराजमान उन भगवान महावीर की मैं इस पृथिवी शिलापट्टक पर रहा लेहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ संथरित्ता दम्भसंथारगं दुरुहइ) प्रतिबेमना કરીને તેમણે ઉચ્ચાર અને પ્રસ્ત્રવણભૂમિની પ્રતિલેખના કરી ત્યારપછી તેમણે તેના ५२ म सथा। पायी. पाथशन तेसो तेन। ५२ मेसी या भने, (दरुहिता) मेसीन (पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गडियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कई एवं वयासी हिशा त२३ भांशन पासनमा मेसी आया भने मने हाय अन तेभने भरत ५२ भूतi l प्रभाले माया-(नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं गमोत्युणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउ कामस्स मम धम्मायरियस्स चंदामि) भगवान अतने नभ२१२, भा। यायाय श्रम भगवान महावीरने नभ२४।२ माम मालीन (वंदामिण भगवंतं तत्थगय इहगए पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयंत्ति कटु वंदइ नमसइ) तेभाणे गुथुशिल येत्या વિરાજમાન તે ભગવાન મહાવીરને હું આ પૃથ્વી શીલાપટ્ટક ઉપર સ્થિત રહેલા વંદન કરું છું. ત્યાં વિશજતા ભગવાન મહાવીરસ્વામી અહીં બેઠેલા મને જુએ' આમ કહીને For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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