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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४.४ शाताधर्म कथासूत्र कामक्रीडावशेन विकसता-प्रफुल्लिते कटनटेकपोलस्थले क्लिन्ने आर्टीकृते येन, तत्तथा, तश्च गंधमदवारिच-गन्धयुक्तमदजलं चेति कर्मधारयः, तेन 'सुरभिजणियगंधे' सुरभिजनितगन्धः शोभनगन्धवान्, 'करेणुपरिवारिए' करेणु परिवारितः हस्तिनी परिवारयुक्तः 'उउसमय जणियसोहो' ऋतुसमवजनित शोभः-ग्रीष्मऋतुक्रीडामुखसम्पन्नः । अथ ग्रीष्मकालो वर्ण्यते-'काले' उष्णसमये कीदृशे इत्याह-दिणयरकरपयडे दिनकरकरप्रचण्ड प्रचण्डमार्तण्डकिरणरुग्रे परिसोसियतरुवरसिहरभीमतरदंसणिज्जे' परिशोषिततरुवरशिखर भीमतरदर्शनीये, तत्र परिशोषितानि तरूबर शिखराणि येन स तथा, अतएव भीमतरदर्शनीयश्च प्रचण्डतपयत्वात दुःसहतापकरत्वाच्च, भिंगारवंत भेरवर वे' भृङ्गाररुवद् भैरवरवे-भृङ्गाराणां झिल्लीनामककीटानां स्वतां शब्दं कुर्वतां भैरवोभयङ्करोरवःशब्दो यस्मिन् तथा, तत्र, 'णाणाविह पाक तण कयवरुद्धयपइ मारुयाइद्धनहयलदुमगणे नानाविधपत्रकाष्ठतृणकचवरोधृतमतिमारुतादि. क्रीडा के वश से प्रफुल्लित कोल स्थली को गीला करने वाले मद जल से तुम्हारी गंध निराली बन गई । (करेणु परिवारिए) हथिनियों के परिवार से युक्त होकर तुभ (उउसमयजणियसोहो ) ग्रीष्म ऋतु काल संबन्धी क्रीडा सुखों का अनुभव करने लगे । (काले दिणयर कर पयंडे ) परन्तु देव दुर्विशक से तुम (बहते दारुणंमि गिम्हे ) उसी वर्तमान भयंकर ग्रीष्म काल में जो सूर्य की प्रचण्ड किरणों द्वारा अति उग्र बना हुआ था ( परिसोसियतरुवरसिहरभीमतरदंसणिज्जे) जिस में वृक्षों की शिखरों तक शुष्क हो चुकी थी और इसी से जो प्रचंड धूप से युक्त होने के कारण दुःसह ताप कर्ता हो रहा था (भिंगारखतभेरवरवे) शब्द करते हुए झिल्ली नामके कीडेंा के भय. प्रद शब्दों से जो व्याप्त था (णाणाविपत्ततणकढकयवरुद्ध य पइमारु પ્રા થયેલા કપિલ સ્થળને સિંચિત કરનાર મદવણથી અદૂભુત થઈ ગઈ હતી. (करेणुपरिवारिए) साथणीमाना परिवार साथै तमे (उउसमयजाणियसोहो) नाजानी भोसभने भाटे सुमह मिडीयामा सास:त गया. (काले दिण यर करपयंडे) पण मायनी विमाथी तमे (नते दोरुणमि गिम्हे) ते मतना प्रय सूर्यन रिथी ५ गये। श्रीमणमा ( परिसोंसिय तरूवरसिहर भीमतरदंसणिज्जे) मा वृक्षोना छ परिमा सुधां सूा गया तो मेथी ते अतिशय सतत ४२१॥२ थ६ ५.यो हतो. (भिगारखंतेभेरवरवे) तमगंगाना मय व्यास थयेसा, (णाणाविहपत्ततणकट्ठकयवरुद्धयपहमारुयाइद्धनह For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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