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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणीटीका. अ १ सू. ४३ मेघमुनेर्हस्तिभववर्णनम् " यत्र स तथा, तथा, तुषारं हिमं प्रचुरं यत्र सः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तस्मिन् 'अइकते' अतिक्रान्ते= एतादृशे शीतकाले व्यतीते 'अहिणवे' अभिनवे= नूतने शीतकालसमाप्त्यनन्तरमुपागते ग्रीष्मसमये 'पत्ते' प्राप्ते समागते इत्यर्थः 'वियहमाणे' विवर्तमानः इतस्ततो विचरन् वनेषु 'वणकरेणुविविदिष्णकयपंघाओ' वनकरेणु विविधदत्तकृतः पांशुयातः, तत्र वनकरेणवः वनहस्तिन्यस्ताभिः विविधः अनेकप्रकारः दत्तः अत एव कृतः पांशुघातः = धूली प्रहार : कामलीलावशात् यस्य सः तथा, 'उउयकुसुम कय चामरकन्नपूर परिमंडियाभिरामे' ऋतुज कुसुमकृतचामर कर्णपूरपरिमण्डिताभिरामः, तत्रक्रीडार्थ ग्रीष्मऋतु जायमानपाटलकमल पुष्यादिभिः कृतानि यानि चामरवत् कर्णपूराणि= कर्णभूषणानि तैः परिमण्डितः अलंकृतः अतएव अभिरामः सुन्दरः यः स तथा 'मयबसविग संत कडतड कि लिन्नगंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधे' मदवशविकसत्कटतट क्लिन्नगन्धमदवारिणा सुरभिजनितगन्धः तत्र - मदवशेन= है ( अइवकते ) जब समाप्त हो चुका तथा ( अहिणवे गिम्हसमयंसि पत्ते) शीत काल की समाप्ति के बाद ही जब अभिनव ग्रीष्म काल लग चुका त ( गईदभावमि वट्टमाणे मेहा तुम ) गजेन्द्र की पर्याय में वर्तमान हे मेघ ! तुम ( वणेसु वियट्टमाणे ) वनों में इधर उधर घूमते हुए (वणकरेणुविविहृदिष्णकय पंसुघाए ) कामलीला से प्रेरित हुइ वन की हथनियों द्वारा दिये गये अनेक विध घुलि प्रहारों से युक्त होने लगे । ( उउय कुसुमकयचामरकन्नपूर परिमंडियाभिरामे ) ग्रीष्म ऋतु में उत्पन्न हुए पाटलकमल पुष्पादि द्वारा चामर के समान कृत कर्णाभरणों से परिमंडित होकर तुम विशेष देखने में सुन्दर बन गये । (मयवसविगसंतकडतडकि लिन्नगंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधे) काम युष्ण प्रभाशुभां आउन चडेलु होय छे. ( अइवकते ) न्यारे । थ गयो तेभन ( अहिण वे गिम्हसमयंसि पत्ते ) इंडीनी भोसम पूरी थया पछी ल्यारे उनाणो मेसी गयो त्यारे (गइंद भावमिवमाणे मेहा तुमं) गनेन्द्रना पर्यायां विद्यमान डे भेध ! (वणेसु विट्टमाणे ) सोभां आमतेम वियश्ता ( वणकरेणुविविहि दिण्णकयपसुधार ) अभडीडानी लावनाओोथी प्रेरित वननी हाथाशीयो द्वारा हामेला भने! घूमना अडारोथी युक्त थवा साभ्या. ( उज्यकुसुमकयचामरकन्नपूर परिमंडियाभिगमे ) उनाणांभां भीसेसा पाटस उभण युष्य वगेरेथी थभरनी भ अशुलरशोथी सुशोलित थहने तमे सविशेष भूमसूरत थ गया. ( मयवस विगसंत कडतड किलिन्नगंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधे) तभारी भट्टगंध अभङ्गीडावशथी For Private and Personal Use Only ४९३
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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