SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नगारधर्मामृतवपिणीटीका अ.१स ३६ मेघकुमारदीक्षोन्सवनिरूपणम् ४२१ 'संखिया' शासिकाः-शखवादनपूर्वकभिक्षाकारिणः 'चक्किया' चाक्रिकाः कुम्भकारतैलिकादयः, चक्र प्रदर्य याचका वा, लंगलिया' लाङ्गलिका-हलिका हल वाहका:-कृषीवलाः, 'मुहमंगलिया' मुखमंगलिकाः मुखे मङ्गलमस्ति येषां ने, आशीर्वाददायका इत्यर्थः। 'पूसमाण वा' पुष्पमानवाः-मागधा मंगल पाठकाः, 'वद्दमाणगा' वर्द्धमानकाः स्कंधारोपितपुरुषाः, क्रियाविशेषकारकाः 'ताहि' ताभिः इष्टाभिः इष्टार्थ निरूपिकाभिः, कान्ताभिः हृदयाऽऽलादिकाभिः पियाभिः प्रीतिजनकाभिः मनोज्ञाभिः=मनोहराभिः, मनोऽमाभिः मनसा अम्यन्ते गम्यन्ते इति मनोमाः ताभिः, अन्तःकरण हराभिरित्यर्थः मनोभिः= रामाभिः मनोज्ञाभिः हृदयगमनीयाभिः, परमप्रमोदजनकाभिः, 'वग्गृहि, वाग्भिः 'अणवरयं' अणवरत-विरामरहितं 'अभिणंदता य' अभिनंदन्तश्च जय ऐसे मनुष्योंने--(संखिया) अनेक शंख बजानेवाले व्यक्तियोंने-शंख बजाकर मिक्षा मांगने वाले भिक्षुकोंगे (चकिया) कुंभकार तेली आदिकोने, अथवा चक्र दिखाकर याचना करने वालोंने (लांगलिया) अनेक किसानोंने, (मुहमंगलिया) अनेक आशीर्वाद देनेवाले मुखमंगलिकोंने, (पूसमाणगा) अनेक मगल पाठकोंने, (वड़माणगा) अनेक वर्तमानकोंने जिन्होंने अपने कंधों पर पुरूषों को चढा रखा है एसे क्रियाविशेषकारक पुरुषोंने (ताहिं इटाहिं कताहिं पियाहिं मणुन्नाहि मणामाहि मणाभि रामाहिं हिययगमणिज्जाहिं वगृहिति) उन इप्टार्थ निरूपक, हृदयाहादक, प्रीति जनक, मनोहर अन्तः करणहारी. परम प्रमोद जनक वाणियो द्वारा (अगवरयं अभिणदंता य अभियुणंताय एवं वयासी) विराम रहित जय विजयादि शब्दोच्चारण से बधाते हुए इस प्रकार शुभाशीवाद दिये रे माणुसोनी Narयमा भवान। टेस ४ी तो मेवा भाणुसोये (संखिया) ઘણા શંખ વગાડનારા માણસોએ એટલે કે શંખ વગાડીને ભિક્ષા માગનારા ભિખાशब्या-ये, ( चक्किया) मा२ तेजी बोरे भाणुसोये अथवा तो य? मतावान लीमभागना मियामे, (लांगलिया) | मेडूतामे, (मुहमंगलिया) घ! आशीवाद माना। भुममालिये, ( पूसमाणगा) ॥ माये, (वड. माणग) घyा पद्ध भानामे--मणे पाताना मला S५२ मीत माणुसोने मेसाडी राच्या छ---मेवा माणुसोये-(ताहिं इटाहिं कंताहि पियाहिं मणुन्नाहिं मणा माहिं मणाभिरामाहिं हिययगमणिज्जाहिं वग्गूहिति) भेषभा२ने साथ પ્રરૂપક હૃદયને આહલાદિત કરનારા, પ્રીતિ ઉત્પન્ન કરનારા, મનેહર, અંતઃકરણને पशमा ४२नारी, अत्यन्त मान ५माउनाश, क्यनी द्वारा (अणवरयं अभिणंदताय अभिथुणंताय एवं वयासी) सतत न्य विय कोरे क्यनाथी धावता For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy