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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणोटाका. अ.१ ५.३४ मेघकुमारदीक्षोत्सवनिरूपणम्__३९७ युक्ता-इत्र चेष्टितविद्याधरयुगलसंयोजितेव ताम्, 'अच्चिसहस्समालणीयं अर्चिः सहसमालनीयाम्-अर्चिषां-किरणानां सहस्रः-मर्याकरणरित्यर्थः. मालनीया परिचारणीया सेवनीया विविधरत्नखचितत्वात्मर्यकिरणाधिक काशयुक्ता, तामित्यर्थः। 'रूवगसहम्सकलियं' रूपकसहस्रकलितां-रूपकाणि=सुन्दरचित्राणि तेषां सहस्रः कलिना=युक्तां 'भिसमाणं' भाममानांरत्नादिप्रकाशयुक्तां 'भिब्भिसमाणं' विभासमानाम-अतिशयेन दीप्यमानां विविध शिल्पकलारचितस्वात 'चक्खुलोयणलेस्सं वक्षुर्लोकनलेश्यां-चक्षुः कर्तृक लोकनेविलोकने सति चक्षु लिंशतोव-श्लिष्यतीव यत्र मा चक्षुर्लोकनलेश्या दर्शनीयत्तातिशयात् तां पश्य चक्षुर्न निवर्ततेइति भावः। 'सुहफासं' सुखम्पा सुखजनकस्पर्शयुक्ता सस्सिरीयरूवं' सश्रीकरूपाम् अपूर्वशोभासंपन्ना, सिग्छ' शीघ्रम् आलस्यरहितं 'तुरियं' त्वरिनं कार्यान्तरवजितं, 'चवलं' चपलं दुततरं, 'वेगितं सहवेगं सर्वथा मनोवाक् काय व्यापारयुक्तं यथास्यात्तथा 'पुरिससहस्सवाहिणि' पुरुषसहस्रवाहिनीं= मालणीयं) विविध प्रकार के रत्नों से खचित होने के कारण सूर्य किरणों से भी अधिक प्रकाश युक्त, (रूवगसहस्सकलिय) सहस्र सुन्दर चित्रों से विराजित, ( भिसमाणं) रत्नादिको के प्रकाश से चमकीली, (भिभिसमाणं) विविध शिल्पकलाओं से अतिशय रूप से देदीप्यमान (चक्षुल्लोयणलेम्स) देखने पर मानो आखों को खेचती सी हो ऐसी (सुहफासं ) मुख जनक स्पर्शवाली (सस्सिरीयरूव) अपूर्व शोभा से संपन्न, ऐसी (सियं) शिविका को--पालखीको (सिग्धं) शीध्र आलस्य रहित होकर (तुरियं) किसी और कार्य को न करते हुए (चवलं) जल्दी से जल्दी (वेड्यं) मन, वचन, काय को एकाग्रता पूर्वक (उवट्टवेह) उपस्थित करो। याद रहे यह पालखी (पुरिससहस्सवाहिगि) (अचिसहस्समालणीयं) भने प्रा२न! r3al डोपाथी सूर्य रिणाथी ५४ १५ १२० युस्त, (रूवगमहस्सकलियं) । सुन्४२ चित्राथी युक्त, (भिसमाणं ) रत्नो वगेरेना प्रशथी यमती, (भिन्भिसमाणं) मने तनी शिE५४सामाथी २थित डोवाने बीच मती प्रीत यती, ( चखुल्लोयणलेस्सं ) ( महफासं) वीम६ २५vी , (मस्सिरियरूवं) महमुत शाला संपन्न, मेवी (सि)यं शिमि-पातमी-ने (सिधं) reel माणस छाडीन, (तुरिय) मी अ य म त२३ ध्यान आया (चवलं) सत्वरे (वेइयं) मन, क्यन मने मयी मेयता मेजवान(उचढवेह) anो पाली ( पुरिससहस्सवाहिणि ) For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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