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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञाताधर्म कथाङ्गसूत्रे पुरुषहरुद्वहनयोग्यां 'सियं' शिक्षिका पालखी' इति भाषा पसिद्धाम्, तए 'उवट्ठवेह' उपस्थापयत-समानयतेत्यर्थः। ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः हृष्टतुष्टा पावन उपस्थापयन्ति । ततः खलु स मेघकुमारः शिबिकां दुरोति= आरोहति, दूरुह्य आरुह्य सिंहासनवरगतः वज्ररत्नखचित वेदिकोपरिस्थापितवरसिंहासनसमादः इत्यर्थः, पूर्वाभिमुखः सन् संनिपण्णः उपविष्टः। ततः खलु तस्य मेघकुमारस्य माता धारिणी देवी स्नाता कृतबलिकर्मा यावत अल्पमहर्घाभरणालङ्कृतशरीरा शिबिकां दृरोहति आरोहति दुरुह्य मेघकुमारस्य दक्षिणपार्श्वे भद्रासने निषीदति=उपविशति । ततः खलु तस्य मेघकुमारस्य हजार पुरुष जिसे उद्वहन कर सकें ऐसी हो (तएणं ते कोडुबियपुरिसा हट्ट तुट्ट जीव उवट्ठति) इस प्रकार राजा का आदेश प्राप्त करते कौटु. म्बिक पुरुष बहुत ही अधिक हर्ष से संतुष्ट हुए और जिस प्रकार को पालवी उपस्थित करने की बात सजाने कही थी--उसी प्रकार की पोलखी लाकर उन्होंने उपस्थित करदी। (तएणं से मेहे कुमारे पीयं दुरूहइ ) पालवी के आते ही मेहकुमार उस पर सवार हो गये। (दु महिता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने ) वहां पर जो वज्र रत्न खचित वेदिका के उपर उत्तम सिंहासन रखा था उस पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके वे मेघकुमार गजा बैठे गये । (तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया हाया कयवलिकम्मा जाव अप्पमहग्धाभरणालंकिमी । मीय दुरूह ई) इस के बाद मेघकुमार की माता धारिणी देवी स्नान करके काक आदि को अन्नादिका भाग रूप बलिकर्म अदि करके वजन की अपेक्षा अल्प, मूल्य की अपेक्षा बहुत कीमती आभरणों १२ माणुसे। जय श मेवी डोदी ने ये (तएणं तं कोई बय पुरसों हट्ट तुट्ठा जात्र उवछति ) मा रीते शनी भाशा भेगवीन औमि पुरुषो मती પ્રસન્ન અને સંતુષ્ટ થયા અને રાજાએ જે જાતની પાલખી તેયાર કરીને લાવવા भाटे म यों तो तेवी all arel ordन वाव्या. (तएणं से मेहे कूमारे सीयं दुरुहइ) avी मावतi . भेषभार तेमा सवार थया (दुरुहित्ता सीहासगवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने ) तेभा डी मने २त्ने.3al વેદિકાઓ પર મૂકાએલા ઉત્તમ સિંહાસન ઉપર પૂર્વાભિમુખ થઈને મેઘકુમાર રાજા मेसी गया. (तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया पहाया कयाल्लिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा सीयं दुरूहई) त्या२॥६ भेधમારની માતા ધારિણદેવી સ્નાન કરીને, કાગડા વગેરેને અન્ન વગેરેની બલિ આપીને For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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