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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ हाताधर्मकथाङ्गसू उपागत्य मजनगृहं अनुपविशति, अनुपविश्य 'अंतोअंतेउरंसि' अन्त:-अन्तः पुरे, अन्तः पुराभ्यन्तरे इत्यर्थः, स्नाता कृतबलिकर्मा कृतकोतुकमंगलपायश्चित्ता 'किं ते' किं तत्, किमधिकं तद् वर्णयामीत्यर्थः, 'वरपायपत्तणेउर जाव' वर पादप्राप्तनू पुरा अत्र यावच्छ०देनेदं द्रष्टव्यम्-मणिमेखला कटयां धृता, कंठे हाराः स्थापिता, अङ्गुलीषु मुद्रिका परिहिता, तथा कुण्डलोद्योतितानना, रत्नविभूषिताङ्गीः इति । 'आगासफलियसमप्पभं' आकाशस्फटिकसमप्रभम् निर्मलं श्वेतवर्णमित्यर्थः 'अंसुयं' अंशुकं वस्त्रं 'णियत्था' देशीशब्दोऽयं, परिधृता धृतवतीत्यर्थः । तथासेचनकं गन्धहस्तिनं 'दुरूढां' दूरूढ़ा-समारूढा सती 'अमयमहियफेण. जहां स्नानगृह था वहां पहुँची-(उवागच्छित्ता) पहुँचकर (मज्जनघरं) स्नान गृहमें (अणुपविसइ) प्रविष्ट हुई (अणुपविसित्ता) प्रविष्ट होकर (अतो अंते उरंसि) उसने वहां अंतःपुरके भीतर (हाया कयबलिकम्मा कय कोउयमंगल पायच्छिता) स्नान किया बलि कर्म किया, तथा कौतुक मंगल एवं प्रायश्चित्त आदि क्रियाएं की। (किं ते) अधिक और क्या कहें (वरपायपत्तणे उर जाव आगासफलियसमप्पभं अंसुयं णियत्था) चरणों में उसने सुन्दर नूपुर पहिरे। यावत् शब्द से यहां इतना ओर समझ लेना चाहिये-कि उसने कटि में मणियों की मेखला पहिनी, कंठ में हार पहिना अंगुलियो में मुद्रिकाएँ पहिनि कानों में कुंडल पहिने । कुंडलों के पहिरने से इसके मुख की अधिक शोभा हो रही थी। रत्नों की झलमलाहटसे इसका समस्त अंग चमकता हुआ उस समय दिखलाई दे रहा था। आकाश और स्फटिकमणिकी प्रभा के समान इसने वस्त्र पहिररखे थे । "णियत्था" यह देशीय शब्द है और इसका अर्थ पहिरना होता है । (सेणणयं गंधहत्थि दुरूढासमाणी) पडाचीन (मजनघर) नानाभा (अणुपविसइ) प्रविष्ट थया. (अणुपविसित्ता प्रविष्ट थने (अंतो अंते उरंसि) तेभणे त्यां २शुवासभा (हाया कय बलिकामा कय कोउयमंगलपायच्छित्ता) स्नान, मसिमी, अतुम। मने प्रायश्चित वगेरे भी ध्या. (किं ते) पधारे शुडी शय. (वरपायपत्तणेउर जाव आगास फलियसमप्प अंसुयं णियत्था) तेभरे मां सरस im२ पडा. मही ભાવ” પદ દ્વારા જાણવું જોઈએ કે તેમણે કેડે મણિમેખલા પહેરી, ગળામાં હાર પહેર્યો, આંગળીઓમાં વીંટીઓ પહેરી અને કાનમાં કુંડળો ધારણ કર્યા. કુંડળોની શેભાથી તેમનું મેં તેજથી વ્યાપક થઈ રહ્યું હતું. રત્નના પ્રકાશદ્વારા તેમનાં બધાં અંગે ચમકી રહ્યાં હતાં. આકાશ અને સ્ફટિક મણિની કાંતિ જેવા તેમણે વ ધારણ ध्या तi. "णियत्था" २॥ शी श४ छ भने तेनो मथ प दु” थाय छ. (सेणणयं गंधहत्थि दुरूढा समाणी) न्यारे तेभनी श्रृ॥२ ५। थयो त्यारे For Private and Personal Use Only
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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