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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी अ. टीका. सू.१७ अकालमेघदोहदनिरूपणम् पुंजसणिमासाहि अमृतमथितफेनपुखसन्निकाशेः श्वेतचामरबालव्य जनैर्वज्यमाना २ 'संपत्थिया' संप्रस्थिता प्रचलिता । ततः खलु स श्रेणिको राजा स्नातः (वायसादिभ्यो दत्तान्नभागादिरूप कृतवलिकर्मा 'जानसस्सिरीप' यावत् सश्रीकः जत्र यावत्करणादिद्रव्यम्-सर्वाल ङ्कारविभूषितः कृतशरीरशोभः इति, सश्रीकः = श्रिया = शोभया सम्पन्नः, हस्तिस्कन्धवरगतः हस्तिस्कन्धे समुपविष्टः सकोरण्टमाल्यदाम्ना=कोरष्टपुष्पमाला युक्तेन छत्रेण त्रियमाणेन भृत्यतेनेत्यर्थः युक्तः, चतुर्भिश्चामरैवज्यमानैर्युक्तः, जब यह पूर्ण रूप से अपना शृंगार कर चुकी - तब राजा की सवारी का जो हस्ती था कि जिसका नाम सेचनक था और जिसकी गंधको सूंघकर दूसरे हाथी उसके समक्ष ठहर नही सकते थे उसपर वह चढी । ( अमयमहिय फेण पुंजस णिगासाहिं सेयचामरबालवीयणीहिं वीइजमाणी २ संपत्थिया) उससमय उसके ऊपर जो श्वेतचमरोंके बाल रूपी पंखें ढोरे जा रहे थे वे अमृत के मथित हुए फेण पुंज के समान सुन्दर थे । तात्पर्य इसको यही है कि जब यह सेचनक हस्ती पर सवार हुई तब इसके ऊपर - चमर ढोरने वालोंने आजूबाजू में चमर ढोरना मारम्भ कर दिया। वे चमर अमृत के फेन पुंज जैसे बिलकुल उज्वल थे । इस तरह राजसी ठाटबाट से सुसज्जित होकर यह वहां से चली । (तएणं से सेगिए राया हाए जाब सस्सिरीए हत्थि खंधवरगए सकोरंटमलदामेणं छोणं धारिजमाणे णं चउचामराहि वीइजमाणाहिं धारिणीं देवीं पिट्ठओ अणुगच्छ३) श्रेणिक राजा भी उस समय दूसरे हाथी पर बैठकर इसके पीछे २ चल रहे थे । चह भी पहिले से ही स्नान आदि क्रियाओं રાજાની સવારીના ખાસ સેચનક નામે હાથી હતા કે જેની ગંધ સૂંધીને બીજા હાથી તેની પાસે ઉભા રહી શકતા ન હતા—તે હાથી ઉપર ધારિણી દેવી સવાર થયા. (अमयमहिय फेग पुंजस ण्णिगासाहि सेयचामरबालवीयणीहिं वीइजमाणी२ संपथिया) ते ते तेमना उपर सह ग्रामशेना पंजा ढोणा रह्या हुता तेथेो થિત થયેલા અમૃતના ફીણુ સમૂહ જેવા સુન્દર હતા. કહેવાના હેતુ એ છે કે જ્યારે ધારિણીઢવી હાથી ઉપર વિરાજમાન થયાં ત્યારે બન્ને બાજુથી ચમરા ઢોળાવા લાગ્યા. તે ચમરો અમૃતના ફીણના સમૂહ જેવા એકદમ ઉજ્જવલ હતા. આ રીતે રાજસી हाथी सुशोभित थने तेथे त्यांथीयायां (तएण से सेणिए राया जाए जान सस्सिरी हत्थिसंवरगए सकोरंटमल्लदा मेणं छरोणं धारिजमाणेणं चचामराहिं बीइज्जमाणाहिं धारिणींदेवीं पियो अणुगच्छइ) श्रेणि रान પણ બીજા હાથી ઉપર સવાર થઈ ને પાછળ જઈ રહ્યા હતા. તેઓએ પણ પહેલેથી સ્નાન વગેરે For Private and Personal Use Only ૨૨૭
SR No.020352
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages762
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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