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पूर्व ३२२-२९८ तक का निश्चित किया गया है। इन दोनों के मध्य में ६७ वर्ष का मेहदंतर हैं, इसी से सिद्ध हो जाता है कि दीक्षा विषय कपोलकल्पित है, दिगंबर साहित्य स्वयं इसकी पुष्टि करता है।
चतुर्दश पूर्वधर स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामि का देहावसान इ० पूर्व ३५६ में हुआ। इस में कोई सन्देह नहीं कि भद्रबाहु स्वामी उद्भवट तत्त्ववेत्ता थे, उनके द्वारा विनिर्मित साहित्य जैन साहित्य को महान् गोरव प्रदान करता है । जैनागम साहित्य को परमालंकृत करनेवाली नियुक्तियें देख विद्वज्जन आनंद के सागर में हिलोरे मारने लगते हैं। आप ही एक ऐसे महान् जैनाचार्य है जिन्हें श्वे. दि. दोनो सम्प्रदायवाले बडे आदर के साथ मानते हैं, संप्रदाय द्वय द्वारा कुछ हेरफेरके साथ निर्मित आप का जीवन भी उपलब्ध होता है।
अब यहां पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि, भद्रबाहु नामक जैन समाज में कितने आचार्य हुए ! क्यों कि पुरातन जैन साहित्य में तो दो होने के उल्लेख कही पर भी दृष्टिगोचर नहीं हुए। पूर्वकालीन ग्रन्थकार भी पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी को एक व्यक्ति मानकर नमस्कार करते है, परंतु इतिहास में ऐसे अनेक उल्लेख दृष्टिगोचर हो चुके है, जिनका सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने से विदित होता है कि, एक ही नाम के दो आचार्य जैन धर्म में हुए हैं। एक तो उपरोक्त चतुर्दश पूर्वधर और दूसरे नियुक्तिकार जो वराहमिहिर के बंधु थे । यदि प्रथम भद्रबाहु नियुक्ति के रचयिता होते तो कलिकालसर्वज्ञ हेमचंदसूरि उनका उल्लेख अपने
५ स्थानाभाव से यहां पर विस्तृत विवेचन न कर जिज्ञासु पाठकों को निवेदन करेंगे कि श्री जैन सत्यप्रकाश का ३७-३८ क्रमांक देखें पृ० ५५-६, ११.-१६.
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