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गच्छायार पइएणयं घूमते हैं । इसी प्रकार आचार्य गच्छ की सब प्रवृत्तियों का केन्द्र होता है । पालम्बन-गिरते हुओं को सहारा देने वाला, ख-जो गिरे तो नहीं परन्तु गिरने वाले हैं
उन को गिरने से पहले ही सम्भालने वाला ॥ भयवं ! केहिं लिंगेहिं सूरिं उम्मग्गपटिठयं ।। वियाणिज्जा छउमत्थ ?, मुणी तं मे निसामय ॥ ६ ॥
शिष्य गुरु से प्रश्न करता है, हे भगवन् ! एक छद्मस्थ मुनि को कैसे पता चले कि इन २ कारणों से यह आचार्य उन्मार्ग पर जा रहे हैं ? गुरु उत्तर देने हैं कि उन कारणों को तुम मेरे से सुनो। सच्छंदयारि दुस्सीलं, श्रारंभेसु पबत्त्यं । पीठयाइपडिबद्धं आउकायविहिंसग ॥१०॥ मूलुत्तरगुणभट्ट, सोमायारीविराहधे । अदिनालोअणं निच्च , निच्च विगहपरायणं ॥ ११ ॥
भगवन् ! कैर्लिङ्गः, सूरिमुन्मार्गस्थितम् । विजानीयात् छद्मस्थः ?, मुने ! तन्मे निशामय || ६ ||
“वियाणिज्जा" 'वर्तमान-भविष्यन्त्योश्च न जा वा ॥८.३।१७७॥ इति सूत्रेण विध्यर्थे जा श्रादेशः ॥ स्वच्छन्दचारिणं दुःशील-मारम्भेषु प्रवर्तकम् । पीठकादिप्रतिबद्धं , अकार्यावहिंसकम् ॥ १० ॥ मूलोत्तरगुणभ्रष्ट, सामाचारीविराधकम् । अदत्तालोचनं नित्यं, नित्यं विकथापरायणम् ॥ ११ ॥ "पडिबद्धं" 'प्रत्यादौ डः' ।।१।२०६|| इति सूत्रेण तस्य डः ॥ "मूलुतर" 'लुक' ।।१।१०।। इति सूत्रेण लस्य अकारस्य
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