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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइयं सीवणं तुन्नणं मरणं. गिहत्थाणं तु जा करे | तिलउन्चदृशं वा वि, अप्पणी अ परस्स य || १४३ ।। जो साध्वी अपने पीछे लगी हुई आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अथवा गृहस्थों से स्नेह होने के कारण उन के कपड़ों को सीती है फटे हुए कपड़ों को ठीक करती है रजाई आदि में रुई भरती है (अथवा अन्य कोई भरने का काम करती है) अपने शरीर पर अथवा अपने स्नेही गृहस्थों के बालकों के शरीर पर वैलमर्दन करती है तो उसे आर्यका न समझना चाहिये ॥ गच्छ सविलासगड़, सयणीयं तुलिश्रं सविब्वोयं । उबट्टई सरीरं. सियाणमाईसि जा कुणइ ॥ ११४ ॥ जो साध्वी विलासयुक्त गति से इधर उधर भ्रमण करती है, रुई आदि से भरी हुई तलैया पर नरम तथा मुलायम सिराहने के साथ शयन करती है, तैल आदि का मर्दन करके जो स्नान आदि से अपने शरीर की सजावट में लगी हुई है ॥ णे गेहेसु निहत्थाणं, गंतूण कहो कहे काहीचा | तरुणाई आहिवडते. अणुजा सा इ पडियो || ११ ५ । खीवनं तुन्नणं भरणं, गृहस्थानां तु या करोति । तैलोद्वर्तनं वाऽपि श्रात्मनः परस्य च ॥ ११३ ॥ गच्छति सविलासगतिः, शयनीयं तूलिकां सचिब्बो काम् । उद्वर्तयति शरीरं, स्नानादी नि या करोति ॥ ११४ ॥ गृहेषु गृहस्थानां, गत्वा कथां कथयत काथिका । तरुणादीन् अभिपततः, अनुजानीयात् सा इ प्रत्यनीका ||११५ | "इ" 'इ-जे-रा: पादपूरणे' || २२१७|| For Private And Personal Use Only
SR No.020333
Book TitleGacchayar Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokmuni
PublisherRamjidas Kishorchand Jain
Publication Year1951
Total Pages64
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size3 MB
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