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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साध्वीस्वरूपनिरूपण जत्य जयारमयारं, ममणी जंपड गिहत्थपञ्चक्खम् । पञ्चक्ख संसारे, अज्जा पक्खिवह अप्पाणं । ११०॥ ___ जो साध्विएं परस्पर में गृहस्थों के समक्ष जकार मकार आदि असभ्य वचनों का प्रयोग करती हैं तो वह चतुर्गति संसार समुद्र में अपनी प्रात्मा को अवश्य गिरा देती हैं। जत्थ य गिहत्थभासाहि, भासए अज्जित्रा सुरुठठावि ।। तं गच्छं गुणसायर!, समणगुणविवज्जिनं जाण ॥१११५ जिस गच्छ की आर्यकाएं अत्यन्त क्रोधावेश में आकर गृहस्थों के सदृश सावध भाषा बोलें, क्लेश करे, हे गुणों के सागर गौतम ! वह गच्छ साधुता के गुणों से रहित समझना चाहिये ।। गणिगोअम ! जा उचिरं, सेश्वत्थं विवज्जिउ । सेवए चित्तरूवाणि, न सा अज्जा विवाहिया ॥११२॥ हे गौतम ! साध्वी योग्य प्रमाणोपेत उचित जो श्वेत वस्त्र होते हैं, उन को छोड़ कर नाना प्रकार के रंगदार वस्त्र जो आर्यकाएं पहनती हैं, वे जिन शासन में आर्यकाएं नहीं कही जा सकती। यत्र जकारमकार, श्रमणी जल्पते गृहस्थप्रत्यक्षम् । प्रत्यक्षं संसारे, आर्या प्रक्षिपात आत्मानम् ।। ११० ।। यत्र च गृहस्थभाषाभिः, भाषते आर्यका सुरुष्टाऽपि । तं गच्छं गुणसागर !, श्रमणगुणविवजितं जानीयात् ॥१११।। गणिगौतम ! या उचितं, श्वेतवस्त्रं विवर्य । सेवते चित्ररूपाणि, न सा आर्या व्याहृता । ११२ ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020333
Book TitleGacchayar Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokmuni
PublisherRamjidas Kishorchand Jain
Publication Year1951
Total Pages64
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size3 MB
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