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( १७६) तव हरी 'जाचें माचे, माथे प्रेमविलास ॥ तूर दिवाजे गाजें, छाजे चामर कति ॥ हवे प्रभु आव्या परणवा, नवनवा उत्सव हंति ॥४॥ गोखे चढी मुख देखे, राजीमती भर प्रेम ॥ राग अमीरस वरचे, हरखे पेखी नेम ॥ मन जाणे ए टाणे, जो मुज परणे एह ॥ संभारे तो रंभा, सबल अचंभा तेह ॥ ५॥ पशुअ पुकार सुणी करी, इणि अवसरे जिनराय ॥ तस दुख टाली वाली, रथ व्रत लेवा जाय ॥ तब बाला दुख झाला, परवशि करेंरे विलाप ॥ कहिये जो हवे हुँ छंडी, तो देश्या व्रत आप ॥६॥ सहस पुरुषश्यं संयम, लिये शामल तनु कति ॥ ज्ञान लही व्रत आपे, राजीमती शुभ शंति ॥ वरष सहस आउखु, पाली गह गिरनार ॥ परण्या पूर्व महोत्सव, भव छांडी शिवनार ॥ ७॥ सहस अढार मुनीसर, प्रभुजीना गुणवंत ॥ चालीश सहस सुसाहुणी, पामी भवनो अंत ॥ त्रिभुवन अंबा अंबा, देवी सुर गोमेध ॥ प्रभु सेवामां निरता, करता पाप निषेध।।८॥ अमल कमल दल लोचन,शोचनरहित निरीह।। सिह मदन गज भेदवा, ए जिन अकल अबीह ॥ शंगारी गुणधारी, ब्रह्मचारी शिर लीह । कवि जशविजय निपुण, गुण गावे तुज निश दीह ॥९॥
१. भागे.२. तत्सर. ३. निर्मळ. ४. कमळनां पांदडा जेवां अणीयाळां नेत्रो. ५. कामदेवरुपी हाथीने मारवा सिंह जेवा छे.
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