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( १३९ ) कमणुं बोल्यु, देववंदन त्रण काल रे॥श्री श्रीपालतणी परें समजी, चित्तमां राखो चाल ॥ अ०॥ ५॥ समकित पामी अंतरजामी, आराधो एकांत रे॥ स्याद्वादपंथे सचरतां, आवे भवनो अंत ॥१०॥ ॥ ६॥ सत्तर चोराणुं शुदि चैत्रीये, वारशे बनावी रे ॥ सिद्धचक्र गातां सुख संपत्ति, चालीने घेर आवी ॥ अ० ॥७॥ उदयरतन वाचक उपदेशे, जे नरनारी चाले रे ॥ भवनी भावठ ते भांजीने, मुक्तिपुरीमां महाले ॥ अ०॥ ८॥ इति ॥
॥ अथ श्री सिद्धचक्र चतुर्थ स्तवनम् ॥
॥ किसके चेले किसके पूत ॥ ए देशी ॥ ॥ सेवो रे भवि. भावे नवकार, जपे श्री गौतम गणधार ॥ भवि सांभलो ॥ हारे संपद थाय॥ भ० ॥ हारे संकट जाय॥०॥ आसोने चैत्रे हरष अपार, आणी गणणुं कीजें तेर हजार ॥ भ०॥ ॥१॥ चार वरस ने वली षट्मास, ध्यान धरो भावें धरी विश्वास ॥भ० ॥ध्यायों रे मयणासुंदरी श्रीपाल, तेहनो रोग गयो ततकाल ॥ भ० ॥२॥ अष्ट कमलदल पूजा रसाल, करी न्हवण छांटयुं त. तकाल ॥ भ० ॥ सातशें महिपती तेहने रे ध्यान, देही पामी कंचनवान ॥ भ० ॥ ३ ॥ महिमा कहेतां एनो नावे पार, समरो तिणे कारण नवकार ॥ भ० ॥इहभव परभव घे सुखवास, बहु पामेलील विलास ॥ भ० ॥ ४ ॥ जाणी रे प्राणी लाभ अनंत, सेवो सुखदा
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