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( १३८ )
मुरतरु सम सिद्धचक्र आराधो, वरवा शिववधु राणी, सुभविया सुणजोजी.॥ १॥ शिव कार्य- मुख्य कारण नवपद छे, गुणी गुण पण चारजी रे अरिहंत सिद्ध मूरि उवझाये, साधु वर दर्शनधार, सुभवि० ॥ २॥ ज्ञान चारित्र तप ए नव पदनु, आराधन एणीपरे कीजेजी रे; आसा चैत्र शुदि सातमथी, आंबिल ओळी मांडीजे, सुभवि०॥३॥ चैत्य पूजा गुरुभक्ति करीए, पडिकमणां दोय धारोजी, त्रण काळ देववंदन करीए, ब्रह्मचर्य भूमि संथारो, सुभवि० ॥ ४ ॥ नोकारवाली वीशज गणीए, एकेक. पदनी रंगे जी रे पडह अमारि सदा वजडावी, सुणो आगम गुरु संगे, सुभवि० ॥५॥ कहे धर्मचंद सिद्धचक्र सेवतां, लहोए मंगळ माळजी रे; राज्यऋद्धि रमणी सुख पाम्यो,.जेम नरपति श्रीपाळ, सुभवि० ॥६॥
॥ अथ सिद्धचक्र स्तवन त्रीजुं ॥ ॥ अवसर पामीने रे, कीजें नव आंबिलनी ओली ॥ ओली करतां आपद जाये, रिद्ध सिद्ध लहियें बहुली ॥ अ० ॥१॥ आसो ने चैत्रे आदरशुं, सातमथी संभाली रे ॥ आलस महेली आंबिल करशे, तस घर नित्य दीवाली ॥ अ०॥२॥ पूनमने दिन पूरी थाते, प्रेमेथु पखाली रे ॥ सिद्धचक्रने शुद्ध आराधी, जाप जपे जपमाली ॥आ० ॥३॥ देहरे जईने देव जुहारो, आदिश्वर अरिहंत रे॥ चोवीशे चाहीने पूजो, भावेशु भगवंत ॥ अ० ॥४॥बे टैके पडि
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