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४८७ आनंदन जिन वाणी ॥ सिंहासन बेसी, उपदेशी हित आणी । जेह मांहे वखाणी, जीवदया सुणो प्राणी ॥ ते वाणी आराधी, वरीये शिब पटराणी ॥ ३ ॥ संघ सान्निध्य कारी, जय कारी वरदाई ॥ शासन रखवाली, विघन हरे अंबाई ॥ बावीशमा जिननी, सेवा करो चित्त लाई, बुध प्रीतिविजय कहे, सुख संपद में पाई ॥४॥
॥ अथ श्री पार्श्वनाथजीनी थोय जोडो॥ ॥ प्रणमुं नित्य पास चिंतामणि, सोहे तस सप्त फणमणि ॥ तस महिमा मही मांहेज घणी, सुप्रसन्न सदा मुझ जगत धणी ॥१॥ वंदुं हुं अतीत अनागता, वोश विहरमान चारे शाश्वता ॥ संपई जिनवर सवि वंदीयें, मनमोहन देखी आणंदीयें।। २॥ भरपूरें गाजे मेहलो, सांजळतां अधिक स्नेहलो ॥ एवो
आगम जिनवर नांखियो, सहु गणधर माल परकाशियो ॥ ३॥ श्री पास चरण सेवो सदा, जेहथी लहियें सुख संपदा ॥ दया कुशल कहे सो भगवइ, संघ विघन हरो पउमावइ ॥ ४॥ इति ॥
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