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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९३ सुत्र भण्या कोइ श्रावक नवि कह्या, लद्धठा कह्या तेह ॥ प्रथम ज्ञानने रे पछे दया कही, तिहां संयत गुण रेह ॥ ८॥ स० ॥ नवम अध्ययने रे बीजा अंगमा, घरमांहि दीव न दीठ ॥ वली अ चउदमे रे का शिक्षा लहे, ग्रंथ त्यजे ते गरीठ ॥९॥स० ॥ सप्तम अंगे रे अपढिया संवरी, दाख्या श्राफ अनेक ॥ नवि आचारधरादिक ते कह्या, मोटो एह विवेक ॥ १०॥ ॥स० ॥ उत्तराध्ययने रे कोविद जे कह्यो, श्रावक पालीक चंप ॥ ते प्रवचन निग्रंथ वचन थकी, अरथ विवेके अकंप ॥ ११ ॥ स० ॥ सुत्रे दी) रे सत्य ते साधुने, सुर नरने वली अच्छ ॥ संवरद्वारे रे बीजे एम कही, अंग दशमें समरच्छ ॥१२ ॥ स० ॥ वली विगय पमिबद्धने वाचना, श्री ठाणांगें निषिध ॥ नविय मनोरथ श्रुत भणवा तणो, श्रावकने सुप्रसिद्ध ।। १३ ॥ स० ॥ वाचना देतां रे गृहिने साधुने, पायश्चित चउमास ॥ का निशीथे रे तो स्युं एवडी, करवी हुंश निरास ॥ १४ ॥ स०॥ तजिय असज्झाइ गुरुवाचना, लेई जोग गुणवंत ॥ जे अनुयोग त्रिविध साचो For Private And Personal Use Only
SR No.020137
Book TitleChaityavandan Stuti Stavanadi Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharya
PublisherMaster Umedchand Raichand
Publication Year1932
Total Pages539
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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