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Achar
१६५ नो परिपाक थयोतव, पंडित वीर्य उवसीयो, भव्य स्वभावे शिवगति पामी, शिवपुर जइने वसीयोरेप्राणी॥ सम० ॥ ७ ॥ वर्षमान जिन एणी परे विनये, शासन नायक गायो ॥ संघ सकल सुख होये जेहथी, स्याद्वाद रस पायोरे प्राणी ॥ सा०॥८॥
॥ कलश ॥ इम धर्भ नायक, मुक्तिदायक, वीर जिनवर संथुण्यो ॥ सय सत्तर संवत वन्हि लोचन, वर्ष हर्ष धरी घणो ॥ श्री विजयदेव सुरिंद पटधर,श्री विजयप्रभ मुणिंद ए ॥ श्री कीर्तिविजय वाचक शिष्य इणिपरे, विनय कहे आणंद ए ॥ १॥
॥ अथ श्री समकितनुं स्तवन. ॥ ॥ ढाल ॥ १ ते मुज मिच्छामिदुक्कडं ॥ ए देशी ॥
॥सांभलरे तुंप्राणीया, सदगुरु उपदेशो ॥मानव भव दोहीलो लह्यो, उत्तम कुल एसो ॥ सा० ॥१॥ देव तत्त्व नवि ओलख्यो, गुरुतत्व न जाण्यो ॥ धर्म तत्व नवि सदह्यो, हियडे ज्ञान न आण्यो ॥सा॥२॥ मिथ्यात्वी सुर जिन प्रत्ये, सरखा करी जाण्या ॥ गुण अवगुण नवि ओलख्यो, वयणे वखाण्या ॥सा०॥३॥
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