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१५७ पास सुपासरे ॥ दश जिननां अगीयार कल्याणक, ए दिवसे थया खासरे ॥ श्री० ॥ ५॥ अडसिद्धिबृद्धिदायक एदीन, स्तवन रच्यु प्रमाणरे।। भणशे गुणशे जेह सांभलशे, तस घर कोडि कल्याणरे॥ श्री०॥६॥
॥ कलश ॥ इम वीर जिनवर प्रमुख केरो, अढीलाख उदार ए ॥ जिनबिंब स्थापी सुजश लीधो, दानसूरि सुखकार ए ॥ तस पाट परंपर तपागच्छे, सोभाग्य सूरि गणधार ए ॥ तास शिष्य लक्ष्मीसूरि पभणे संघने जयजयकार ए॥१॥
॥ अथ श्री पांचकारणर्नु स्तवन. ॥ ॥ दोहा । सिद्धारथ सुत वंदीये, जगदीपक जिनराज ॥ वस्तु तत्त्व सवि जाणीये, जस आगमथी आज ॥१॥ स्याद्वादथी संपजे, सकल वस्तु विख्यात ॥ सप्तभंगी रचना विना, बंध न बेसे वात ॥ २॥ वाद वदे सहु जुजुआ, आप आपणे ठाम ॥ पूरण वस्तु विचारतां, कोइ न आवे काम ॥३॥अंधपुरुष एह गज ग्रही, अवयव एकेक ॥ दृष्टिवंत लहे पूर्ण गज, अवयव मली अनेक ॥ ४ ॥ संगति सकल नये करी, जुगति
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