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कृषविल संबंध धरो मनमांहीरे, समतिवंतने घणमो उछांहीरे || ६ || असुच्चा केवली किरियाहीनरे, सिद्धा मुजथकी अनुभव प्रीनरे || दंसण रहित न सीझे कोईरे, निश्चय करो भवि आगम जोईरे ॥ ७ ॥ माला झाले निमाला लोरे, किरियाडंबर भणी बहु शोचेरे || नव ग्रैवेयक सुधि लेई जावे रे, तोये समकित लव सुख नावेरे ॥ ८ ॥ जूठ किरियाए धरावे नामरे, हुं मुनि हुं श्रावक गुण धामरे ॥ मुज छतां मरीचीये भवन वधार्योरे, जमाली कुशीष्य जो समकित हार्योरे ॥ ९ ॥
॥ ढाल ॥ ४ ॥ गुण वेलडीयां ॥ ए देशी ॥
|| सिद्ध नरे जिम संग्रह्यो रे ॥ बुद्धवंताजी ॥ विष पण अमृत थाय ॥ रुचिवंताजी ॥ तिम समकितवंते ग्रह्यो । बुद्ध० ॥ शास्त्र सकल समुदाय ॥ रुचि० ॥१॥ द्विपायन श्रेणिक भणी ||बुद्ध० ॥ वासुदेव पेढाल ॥ रुचि ० ॥ अविरतिने पण सुखी करूं || बुद्ध० ॥ मुज विण कवण आधार || रुचि० ॥ २ ॥ दश मिथ्यात्व - गिरि भंजवा || बुद्ध०|| पवि सम हुं समर्थ ॥ रुचि ० ॥ शुभदो आतम भावसुं । बुद्ध० ॥ जिनपदवी मुज
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