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१४५.
इणिपरे जल्पे, पूरो संघ जगीसरे ॥ प्र० ॥ ७ ॥ इति श्री चर्तुदश गुण स्थानक संपूर्ण ॥ || ज्ञानदर्शन चारित्रनुं स्तवन ।
॥ दुहा || श्री इंद्रादिक भावथी, प्रणमे जगगुरु पाय || ते प्रभु वीर जीणंदने, नमतां अतिसुख थाय ॥ १ ॥ ज्ञान दर्शन चारित्रनो, कहुं परस्पर संवाद ॥ त्रिक जोगे सिद्धि होये, एवो प्रवचन वाद ॥ २ ॥ समकित गुण जस चित्त रम्यो, तेहनो वादविवाद || समुदायथी एक अंश ग्रही, मुख्य करे तिहां वाद ॥
॥ ढाल ॥ १ ॥ ललनानी ॥ ए देशी ॥
॥ ज्ञानवादी पेहेलो कहे, त्रिभुवनमां हूं सार ललना || नय निक्षेप प्रमाणनो चउ अनुयोग विचार ललना ॥१॥ ज्ञान भजो भवी प्राणीया ॥ ए आंकणी ॥ सप्तभंगी षट् द्रव्यनुं, मुज विण कुण लहे तत्त्व ललना || बंभी लीपीने प्रणमीया, गणधरादिक महासत्त्व ललना ॥ ज्ञा०॥२॥ मेरु सूर्यने इंद्रनी, उपमा ज्ञानीने होय ललना, मुज वीण मूर्ख पशुतणी, एवी
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