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१३४ ॥ ए त्रण तत्व सुधा जाणीरे, मणिविजय कहे आदरो प्राणीरे ॥हवे०॥६॥ इतिश्री चतुर्थ गुण स्थानक भास॥ ॥ ढाल ॥ ७ ॥ आज न हेजोरे दीसे नाहलो ॥ ए देशी ॥
॥पंचमनाणी रे जिनवर इम कहे, देशविरती गुणठाण ॥ सुधो श्रावक तेने जाणीये, जे धरे जिनवर आण ॥ पंचम० ॥१॥ पेहेलु संघयण नर त्रिक जाणीये, अप्रत्याख्यान कषाय ॥ तेहना भेदरे चार वखाणीये, औदारिक दो कहेवाय ॥ पंचम० ॥२॥ ए दश पयडीरे बंधन नवि हुवे, देशविरति मोजार ॥ सतसट्ठि पयडीरे बंधज इहां सही, जोज्यो इदय विचार ॥पंचम०॥ ॥३॥ उदय चार अपचखाणीया, अनुपुर्वी नर तिरियंच ॥ सुरत्रिक नरयत्रिक ते खट भण्या, वैक्रियदुग वली संच ॥ पंचम० ॥ ४॥ दुर्भग अनादेय अयश वली, सत्तर पयडी न होय ॥ सत्यासीनोरे उदय इहां कह्यो, तीम उदीरणा जोय ॥ पंचम०॥ ॥५॥ सत्ता चोथारे गुणठाणथी, जाणो चतुरसुजाण ॥ मणिविजय कहे नित्य जे ए धरे, तेने कोडी कल्याण ॥ पंचम ॥ ६ ॥ इति पंचम गुणस्थानक भास ॥
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