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घृत खंग जीमनें वमें । सरस रस पाय वलि स्वाद केहवो गमें। चौथ पंचम के गण चढिने पड़े। किणहि कषाय वसि आय पहिले अमे ॥ ७॥ रहे विच एक समयादि षट्
आवली । सहीय सासादने स्थिति इसी सांजली। हिव इहां मिश्र गुणगण त्रीजो कहे । जेह नस्कृष्ट अंतर महुरत लहे ॥ ए॥
॥ ढाल ३ ॥ बेकर जोडीताम ऐहनी ॥ ॥ पहिला चार कषाय । शम करि समकिती । केतो सादि मिथ्या मती ए । ए बेहिज लहे मिश्र । सत्य असत्य जिहां । सरदहणा बेचं ती ए ॥ १० ॥ मिश्र गुणालय मांहि । मरण हे नही । आज बंध न पके नवो ए । केतो लहे मिथ्यात। के समकित लहे। मति सरखी गतिपर नवे ए॥११॥ च्यार अप्रत्याख्यान । उदय करी लहे । मति विण किहां समकित पणो ए। ते अविरत गुणगण । तेतीस सागर । साधिक थिति एहनी जणो ए ॥ १२॥ दया उपशम संवेग। निर्वेद आसता । समकित गुण पांचे धरे ए । सहु जिन वचन प्रमाण । जिन सासन तणी। अधिक अधिक उन्नति करे ए ॥ १३ ॥ केईक समकित पाय । पुद्गल अरधतां । उत्कृष्टा नवमे रहे ए। केईक नेदी गंठि। अंतर महुरतें । चढतें गुण सिव पद लहे ए॥ १४ ॥ च्यार कषाय प्रथम । त्रिण वलि मोहनी । मिथ्या मिश्र सम्यक्तनी ए साते प्रकृति जास । परही नपसमें । ते उपसम समकित धणी ए ॥ १५ ॥ जिण साते क्य कीध । ते नर दायकी । तिणहीज लव
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