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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३३) असुरादिक दस जाण जी। पांच थावरनें तीन विकलेंगी। उगणिस गिणती आण जी ॥ पू० ॥ ४ ॥ पंचेंजी तिर्यंचनें मानव । एह थया इकबीस जी। व्यंतर ज्योतिषीने वैमानिक । श्म दंमक चौवीस जी ॥ पू॥५॥ पंचेंजी तिर्यच अनेनर । पर्याप्ता जे होय जी । ए चौविह देवां मे उपजे । इम देवां गति दोय जी ॥ पू० ॥६॥ असंख्याते आऊखे नरतिरि निश्चे देवज थाय जी। निज आऊखे समके प्रोडे । पिण अधिके नवि जाय जी ॥ पू० ॥ ७॥ नवनपतीके व्यंतर ताई । समूर्छिम तिर्यच जी। सरग आग्मे ताई पुहचे । गर. नज सुकृत संच जी॥पू०॥॥आऊ संख्याते जे गरजज। नर तिर्यंच विवेक जी। बादर पृथवीने वलि पाणी । वनस्पती प्रत्येक जी ॥ पू० ॥ ए॥ परियाप्ता इण पांचे गमें । आवी उपजे देव जी । इण पांचे माहें पिण आगे । अधिकाई कहुं हेव जी॥ पू० ॥ १० ॥ तीजा सरग थकी मांमी सुर । एकेडी नवि थाय जी । अध्मयी ऊपरखा सगला । मानव माहें जाय जी ॥ पू० ॥११॥ ॥ * ॥ ढाल २ आज निहे ज्योरे दीसे नाहलो ए चाल ॥ ॥ नरक तणी गति आगति इण परें । जीवनमें संसार । दोय गतिने दोय आगति जाणीये । वलीय विशेष विचार ॥ १५ ॥ नरक ॥ संख्याते आऊ परयाता । पंचेंजी तिर्यंच। तिमहीज मनुष्य एहिज बे नरकमें । जाये पाप प्रपंच ॥न ॥ १३ ॥ प्रथम नरक लगि जाय असन्नियो । गोह नकुल तिम बीय । गृध्र प्रमुख पंखीत्रीजी खगे। सीह वृ०३ For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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