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(३३१) जगति करो सार।तप पूरण थयां कीजिये। उजमणो सुविचार॥ ज्ञा० ॥३७॥ पांच पांच ज्ञानादिना । उपगरण करो सार धन खरचो शुज लावथी। खहो पुन्य संजार ॥ज्ञा ॥ ३ ॥ देवो दान सुपात्रने । साहमीवबल सार॥नगति करो साहमीत: एणी।रात्रि जागो उदार ॥ ज्ञा० ॥३। वरदत्तने गुण मंजरी। ज्ञान श्राराधिने सुख ॥पामी अविचलपदवह्या। मेटीने नव दुःख ॥ज्ञा० ॥४०॥ कलश ॥ संवत् जगणीसै पिचत्तर पोषवदि एक मजलै । सुरत बंदर नविक सुखकर सीतल जिन सुपसाउदै । श्रीवीरजिनवर पंचमि तप विधि प्रकाश्यो शुजमणे। सुविहित परंपर गनखरतर जिनकृपाचंजसूरि नणे ॥ १ ॥ इति पांचम बृवस्तवनम् ॥
॥ अथ दीवालीको स्तवन लिख्यते ॥ उहा ॥ वर्षमान जिन चंदकुं नमन करी करजोम । कट्याएणकविधि वर्णदुं । मनमां श्राणिकोम ॥१॥ वीर जिणंद दिणंद सम । समवसस्या गुणखाण । जव्यकमल प्रतिबोधता त्रिनुवन जन महिराण ॥२॥
॥ ढाल १॥ प्रथम जिने सर प्रणमीयै ॥ ए देशी ॥
वर्षमान जिनराजजी । गुणगणअगम अपार ॥ चौवीशम जिन चंद । जगत सुहंकरु। सर्व जीव सुखकार ॥व॥३॥ समकित पामीने प्रन्नु । जव सत्तावीस कीधा।वीस थानक तप सेवी जिन नाम बांधियो। स्वर्गतणा सुख लीधा ॥व० ॥॥ अषाढ शुदि षष्ठि दिने। चविया स्वर्गथी सार। देवा नंदाने उदरे उपन्या जगधणी । सहु जगमे हितकार ॥ व ॥ ५॥ चउदेसुपनानि शिलया। उपनो हरख अपार । दिवस वैयांसीरह्या माहण अव
बृ. २१
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