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(३१६) प्रति दिने न से० ॥ ३३ ॥ इति नव पद वृक्ष स्तवनम् ॥
॥ महावीर स्तवनं लिख्यते ॥ ॥ कर्म तणी कथनीरे कीहां जश्ने कहुं ॥ ए देशी ॥ वीर जिनेसर अलवेसर प्रनु सजिलो सुनिजर धरि सेवकनी ए अरदासजो, वालेसर विन केहने करीये वीनती, श्म जापीने आव्यो तुमारी पासजो ॥ वी० ॥१॥ काल अनादि रफड्यो हुँ संसारमा जवानव जमतां दुःख सह्या अपारजो। वीतराग तमे तारक जाणों तातजी, तोपण वीतक वात कडं निरधारजो ॥ वी० ॥२॥ काल अनंत रहियो सूक्ष्म निगोदमां, व्यवहारेतर राशी दोय कहंत जो श्वासोश्वासमां अधिका सतरे नवकर्या श्म करते नवि पाम्यो जवनों अंत जो ॥ वी० ॥३॥ काल लब्धि पामीने परित्तपणों लह्यो, पृथिव्यादिक व्यवहारमा श्राव्यो तेजो। कर्म उदयथी फरि पमियो निगोदमां, पुद्गल परियट्ट असंख्य रह्यो उहणजो ॥ वी० ॥ ४ ॥ व्यवहारराशिकहवाणों हुं तिहां एजाणूं तुझ आगमयी जगतात जो, एकेजियमां वसतां काल घणो गयो तेहनी केटली कहूं तुम पागल वात जो ॥ वी० ॥ ५ ॥ विकलेंजियनां नव संख्याता मैं कीया सुःख तणो नही आवे कहता पारजो, पंचेंजिय तिर्यंच पणों लहिने प्रनो, जल थल खचरना नव को मुखकारजो ॥ वी० ॥६॥ शीत ताप जय नूख तृषा सही घणी कूर कम करी उपनो नरक मकार जो, वेदन नेदन तामन तर्जनादिक सह्या पर्मा धादि कृत
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