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( ३१० )
रे ॥ धर्म० ॥ ४ ॥ सोलेसे बासठ समे रे, सांगानेर मकार, पद्म सुपसाउले रे, एह जल्यो अधिकारो रे ॥ ध० ॥ ५ ॥ सोहमसामी परंपरा रे, खरतरगच्छ कुलचंद || युगप्रधान जग परगको रे, श्रीजिनचंद मुनींद रे ॥ ध० ॥ ६ ॥ तास शिष्य
ति दीपत रे, विनयवंत जसवंत || श्राचारज चढती कला रे, जिनसिंह सूरि महंत रे ॥ ६० ॥ ७ ॥ प्रथम शिष्य श्री - पूज्यना रे, सकलचंद तस शीस | समयसुंदर वाचक जणे रे, संघ सदा सुजगी रे || ध० ॥ ८ ॥ दान शीयल तप जावना रे, सरस रच्यो संवाद || aणतां गुणतां जावसुं रे, शद्धि समृद्धि सुप्रसाद रे ॥ ध० ॥ ए ॥ इति दान शील तप जाव चोढा लिया संपूर्णम् ॥
|| अथ इग्यारसनो २ ढालनो स्तवन लिख्यते ॥
॥ 5हा || स्वस्तिश्री मंगलकरण हरण ताप जिएचंद वीर जिनंद दिनंदसम प्रणमुं धरि आनंद ॥ १ ॥ गौतम आदि गणधरा श्रुतकेवलि सुविहाण त्रिकरण योगे वंदता पामेकोम कल्याण || २ || एकादशी तिथी वर्णवं शास्त्रत अनुसार विधि पूर्वक राधतां पामें पद निर्वाण ॥ ३ ॥ ( ढाल पहली ) पणियानी || देशी || नेमिजिनेसर ऊपदिशै सुखकारिरे लोय सांजले कृष्ण राजान वालागे द्वारिका नगरी समयसर्या ॥ सु० ॥ रेवताचल उद्यान ॥ वा० ॥ ४ ॥ पर्वाराधन फल कह्यो || सु० ॥ सांजले परषदा बार ॥ वा ॥ पर्युषण चलमासा जला ॥ सु० || नवपद डेलीसार वा० ॥ ५ ॥ पंचमी
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