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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३०) ॥ दूहा ॥ वीर कहै तुम सांजलो, दान शील तप नाव ।। निंदा चै अति पापणी, धर्म कर्म प्रस्ताव ॥१॥ परनिंदा करतां थकां, पापे पिंम नराय ॥ वेढ राम वाधे घणी, मुर्गति प्राणी जाय ॥२॥ निंदक सरिखो पापीयो, जूमो कोश्य न दि॥ वलि चंमाल समो कह्यो, निंदक वदन अदिछ ॥३॥ आदि प्रशंसा आपणी, करतो इंद नरिंद ॥ लघुता पामे खोकमां, नासै निजगुण वृंद ॥४॥ को केहनी मकरो तुम्हे, निंदाने अहंकार ॥ आप श्रापणे गमे रहो, सहुको जलो संसार ॥ ५॥ तोपण अधिको जाव छै, एकाकी समरत्थ ॥ दान शील तप त्रिणे नला, पण लाव विना अकय ॥६॥ अंजन खै आजता, अधिको आणी रेख ॥ रजमांहे तज काढतां अधिको लाव विशेष ॥ ७॥ जगवंत हट जंजण जणी, चारे समान गणंत ॥ चार करी मुख आपणा, चल विध धर्म नणंत ॥ ७ ॥ ॥ ढाल ५ मी ॥ वीर जिणेसर इम लणे रे, वैठी परषदा बार, धर्म करो तुमें प्राणिया रे, जिम पामो जव पार रे ॥ धर्म हीये धरो ॥१॥ धर्मना चार प्रकारो रे, नवियण सांजलो ॥ धर्म मुक्ति सुखकारो रे ॥ धर्म ॥ धर्मथकी धन संपजै रे, धर्मथकी सुख होय, धर्मथकी अरति टले रे, धर्म समो नहि कोय रे ॥ध ॥२॥ उगति पमतां प्राणिया रे, राखै श्रीजिनधर्म ॥ कुटुंब सहुको कारमो रे, मति नूलो जवि धर्म रे ॥ध ॥ ३ ॥ जीव जिके सुखिआ हूश्रा रे, वलि होसे के जेह ॥ ते जिनवरना धर्मथी रे, मत कोई करो संदेह For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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