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( ए) हूंतो रे । साधु समान क्रिया करे ॥ व्यवहारे रे । साधुपणुं को नवि कहे ॥ त्रुटक ॥ नवि कहे साधुपणुं गृहीने । प्रवचननी साखे करी ॥ राजर्षि सेलग थयो उसन्नो । शिष्य गया सवि परहरी ॥ साधु पंथग करे वेयावच । चोमोसी खामण करे ॥ शिष्य वचने सेलग वलियो । शत्रुजे अणसण उच्चरे ॥ ५॥ ढाल ॥ प्रतिमा मांहे रे । तीर्थकरना गुण नथी । जिनप्रतिमा रे। सर्दहिये धर्म सारथी ॥ तेम मुनिना रे । पूरा गुण नवि पामिये ॥ प्रतिमापरे रे। वेष देखी शिरनामियें ॥ त्रुटक ॥ प्रतिमा परे वेष देखी। हिये हरखी वांदवा ॥ श्रावक समकित स्थिरी कारण । गुण साधु तिहां नाववा ॥ साधु सेव करतो राग धरतो । कर्मनी करे निरा ॥ श्री नत्रबाहु गुरु पयंपें ।
आवश्यक मांहे अहरा ॥ ६॥ ढाल ॥ गुरु पाखें रे । दीक्षा दीधी नवि. हुवे ॥ गुरुसेवा रे । करतां सूत्र पूरो खहे ॥ मुनि आगल रे । वीर प्रकासे मनरलि ॥ सुणि गौतम रे । संबंध असुच्चा केवली ।। त्रुटक ॥ संबंध असुच्चा केवलीनो । वीर नांखे एलि परें ॥ अणसांजली जे केवल पान्यो । तेरी देशन नवि करे ॥ शिष्यने ते दीक्ष न दिये । कमजन रचे सुर बरा॥ व्यवहारे तेहनें कांई न हुवे । जगवती माहे अक्षरा ।।। ढाव ॥ मुक्ताफल रे । गुणे करी शोना सहे ॥ संयमस्थान करें । संख्यातीता जिन कहे ।। झाने पूरो रे । आचारे पूरो नहिं । एवा मुनिने रे । पंभित को निंदे नहिं ॥ अटक ॥ निंदे नहिं शषि वेष देखी । मुनि विना शासन नथी । एकवीश सहस वर्ष सीमा । चालसै धर्म बकुसथी । लिक्षांतना ए नाव
बृ० १९
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