SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Anh ( ए) हूंतो रे । साधु समान क्रिया करे ॥ व्यवहारे रे । साधुपणुं को नवि कहे ॥ त्रुटक ॥ नवि कहे साधुपणुं गृहीने । प्रवचननी साखे करी ॥ राजर्षि सेलग थयो उसन्नो । शिष्य गया सवि परहरी ॥ साधु पंथग करे वेयावच । चोमोसी खामण करे ॥ शिष्य वचने सेलग वलियो । शत्रुजे अणसण उच्चरे ॥ ५॥ ढाल ॥ प्रतिमा मांहे रे । तीर्थकरना गुण नथी । जिनप्रतिमा रे। सर्दहिये धर्म सारथी ॥ तेम मुनिना रे । पूरा गुण नवि पामिये ॥ प्रतिमापरे रे। वेष देखी शिरनामियें ॥ त्रुटक ॥ प्रतिमा परे वेष देखी। हिये हरखी वांदवा ॥ श्रावक समकित स्थिरी कारण । गुण साधु तिहां नाववा ॥ साधु सेव करतो राग धरतो । कर्मनी करे निरा ॥ श्री नत्रबाहु गुरु पयंपें । आवश्यक मांहे अहरा ॥ ६॥ ढाल ॥ गुरु पाखें रे । दीक्षा दीधी नवि. हुवे ॥ गुरुसेवा रे । करतां सूत्र पूरो खहे ॥ मुनि आगल रे । वीर प्रकासे मनरलि ॥ सुणि गौतम रे । संबंध असुच्चा केवली ।। त्रुटक ॥ संबंध असुच्चा केवलीनो । वीर नांखे एलि परें ॥ अणसांजली जे केवल पान्यो । तेरी देशन नवि करे ॥ शिष्यने ते दीक्ष न दिये । कमजन रचे सुर बरा॥ व्यवहारे तेहनें कांई न हुवे । जगवती माहे अक्षरा ।।। ढाव ॥ मुक्ताफल रे । गुणे करी शोना सहे ॥ संयमस्थान करें । संख्यातीता जिन कहे ।। झाने पूरो रे । आचारे पूरो नहिं । एवा मुनिने रे । पंभित को निंदे नहिं ॥ अटक ॥ निंदे नहिं शषि वेष देखी । मुनि विना शासन नथी । एकवीश सहस वर्ष सीमा । चालसै धर्म बकुसथी । लिक्षांतना ए नाव बृ० १९ For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy