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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २०० ) होय केवली ॥ व्यवहार अधिक वीर जाखे । धर्म दाखे जीवने ॥ अन्याय करतां जगति नेता । वारे दुर्जय लोकने ॥ १ ॥ || ढाल ॥ जुठे मुनिवररे । खप करतो नवि जाणीयो ॥ श्रधा कमरे । आहार असूतो आणीयो ॥ तेह केवली रे । आहार श्रयो ते जमे ॥ मुनि आगल रे । दोष प्रकाशे नवि किमे ॥ त्रुटक || नवि दोष जांखे साधु आगल | सूत्र ऊपर मतिटले || व्यवहार राखे श्रागम पाखे । साधु मारगथी चले ॥ खटमास कूर्मा पुत्र रहिया । गृहस्थवेषे केवली ॥ यतिवेष पामी वनी मांहे । नमे सुरराजावली || २ || ढाल || जरते सररे । रीसा मांहे जोवतां ॥ निजकाया रे । अनियत जावना जावतां ॥ पण श्रे रे । चार कर्म चूरण करी ॥ शुन ध्याने रे । केवल लम्बी तव वरी ॥ त्रुटक ॥ तव वरी केवल लम्बी राजा । इंद्र चोस आवए ॥ मनमां आणंदे कोय न वंदे | जामे वेष न पाव ॥ मुनिवेष पहेरी जाम विचरे । ताम वंदे सुरवरा ॥ उपदेश माला वृत्ति मांहे एसा दीसे अक्षरा ॥ ३ ॥ ॥ ढाल ॥ तप करतो रे । प्रसन चंद्र ऋषिराज रे ॥ वेष देखी रे | साध्यां उत्तम काज रे । सोनी घर रे । मेतारज वहोरण गयो । कृषि देखी रे | सोनार मन आनंद जयो || त्रुटक || सोनार मन आनंद यो । सार आहार वहोरावए ॥ तव जव न पासें मन विमासें । साधुने परि तापए | परलोक पहोतो साधु देखी । ताम वेष अंगीकरे || ऋषि घातकारी अनाचारी । वेषथ जीवित घरे ॥ ४ ॥ ढाल || वेष वंदो रे । निंदोमा मूरख पऐ || वेष राखे रे । धर्म यतिनो जिन जो ॥ गृही For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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