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( २०३ )
श्रतमा शुद्ध कीध ॥ तो आलोय एलीजियें । नहीं तर शंखीध ॥ प० ॥ ३ || daal धिकोदेजिके । पारकाले पाप ॥ लेनार बूटे नहिं । सामो जागे संताप ॥ पा० ॥ ४ ॥ कीधां तिम कोइ कहे नीिं । जिन लमथक जूट ॥ कांटो जाग्यो श्रांगुली । खोत्री जे अंगूठ ॥ पा० ॥ ५ ॥ गामर प्रवाह तूं मूक जे । दुःषम काल दुरंत ॥ तम साखे आलोय जे । वेद ग्रंथ कहंत || पा० ॥ ६ ॥ करम निकाचित जे कर्या । तेतो जोगव्यां बूटे ॥ शिथल बंध बांध्या जिके । ते आलोयां तूटे ॥ ७ ॥ पृथवी पाणी यागना । वायु वनस्पति जीव ॥ तेहनो आरंभ तूं करे । स्वाद लीधो सदीव ॥ पा० ॥ ८ ॥ अंध मूंगो बोबको । मृगा पुत्रज्युं देख | अंगोपांगे तेहने । मारे लोहनो मेख | पा० ॥ ए ॥ बोले नहिं ते बापको । पण पीमा होय || तेहवी तीर्थंकर कहे । श्राचारंगे जोय ॥ पा० ॥ १० ॥ मूलो आदि देश | कंद मूल विचित्र ॥ अनंत जीव सुइ में | पन्नवा सूत्र ॥ पा० ॥ ११ ॥ जिनने स्वाद मारा जिके । तेतो मारशे तु ॥ जव मांहे जमतां थकां । थाशे जिहां तिहां फूल || पा० ॥ १२ ॥ जीने झूट बोहया घणां । दीघां कुमां कलंक ॥ गलजिजी थाशे गले । होशे महोडूं त्रिक || पा० ॥ १३ ॥ परधन चोरी लूटीया । पाड्यो घाशको पेट || मूख्यो जमे संसारमां । निरधन थइ नेट ॥ पा० ॥ १४ ॥ परस्त्रीने तें जोगवी । तुन स्वाद तुं लेसे ॥ नरके ताति पूतली । श्रलिंगण देशे ॥ प० ॥ १९ ॥ परिग्रह मेहयो अति घणो । इछा जेम श्राकाश ॥ काज सरे नहिं तेवां ।
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