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(२६४) चोवीसी जगहुए होसी अवर अनंत । आदिकोइ जाणे नहीं इण नवकारह मंत ॥ ७ ॥ एसो पंच नमोकारो पददिसि अगनिहिं । सबपावप्पणासणो पद जपनेरेहिं ॥ वायवदिसि जाएह मंगलाणं च सवेसिं । पढम हवश् मंगलं ईसाण पएसि ॥ चिहुँ दिसि चिहुँ बिदिसे मिलिय अग्दल कमल उवे । जो गुरु लघु जाणी जपे सो घणपाप खवेश् ॥ ॥ इण प्रजाव धरणिंद हुढे पायालह सामी । समली कुंवर उपन्न निस सुर लोयह गामी ॥ संबल कम्बल बे बलद पहुता देवां कप्पे । सूली दीधोचोर देव श्रयो नवकारहि जप्पे ॥ शिवकुमार मन वंचिय करे जोगी लियो मसाण । सोना पुरसो सीधलो इण नवकार प्रमाण ॥ ए॥ ींके वेगे चोर एक आकासे गामी । अहि फिट्टि हुई फूलमाल नवकारह नामी ॥ वाउरू आ चारंत बाल जल नदी प्रवाहे । बींध्यो कंटही उयर मंत जपियो मन माहे ॥ चिंत्या काज सबे सरे शत परत विमास । पालित सूरि तणी परे विद्या सिद्ध आकास ॥ १० ॥ चौर धाम संकट टले राजा वति होवे । तित्थंकर सो होइ लाख गुण विधिसुं जोवे ॥ साइण माइण नूत प्रेत वेताल न पुहव। आधि व्याधि ग्रहतणी पीमते किसहि न होवे । कुछ जलोदर रोग सबे नासे एणही मंत । मयणा सुंदरि तणी परे नवपयकाण करत ॥ ११ ॥ एक जीह इण मंत्र तणा गुणकिता वखाणुं । नाणहीण
नमत्थ एह गुण पार न जाणूं ॥ जिम सत्तुंजय तित्थराउ महिमा उदयवंतो । सयल मंत्र धुरि एह मंत्रराजा जयवंतो। तित्थंकर गणहर पणिय चवदह पूरब सार । इण गुण अंत
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