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(१०) विधिलेवे विधि आलोवे विधिकरे आहार रे । लूखो सूखो अरस नीरस हीवेनहीं लिगार रे ॥७॥ दी० ॥ काले आवे काले जावे । विचरे नहीं अकाल रे । काले काल समाचरे जे। वांछ साधु त्रिकाल रे ॥७॥दी॥जात पाणी सयण आसण । बता न देवे जेहरे । जती रती तसु रोष न करे । निंदे वंदे सम एहरे ॥ ए॥ दी०॥ तप चोरनें वय चोरादिक। हुवे किलवीषी देवरे । मुर्गति दुर्लल बोध जांणी । धरम मारग सेव रे ॥१०॥ दी० ॥ शिष्य शिक्षा ग्रहें निदा । ते लहे सिव लोय रे । जैतसी कहे शास्त्र मांहे, बोल बहु ने जोय रे ॥ ११॥ दी० ॥ इति पंचमाध्ययन सजाय संपूर्णम् ॥
॥अथ षष्टाध्ययन सझाय लिख्यते ॥ ॥ वैरागी नीरागी हो सूधा साधुजी । दसण नाण संपन्न वनवामी मांही आवि समोसया । सुमति गुपती प्रतिपन्न ॥१॥ वैराण ॥ मिल मिलराजा हो राजाना मुंहता । ब्राह्मण दात्रिय लोक । साधुनें पूरे हो किम ने ताहरो । आचार गोचर लोग ॥२॥ बैरा ॥ मुनिवर पनणे हो मारग साधुनो। कठिन
आचार विचार । हुयो न हुस्ये हो धरम को इण समो । मुगतितणो दातार ॥ ३ ॥ वैरा ॥ षट् व्रतपाले हो उकाय राख तो। नहीं नाहण सिंणगार । पलंग निषेध्या हो गृही नाजन तज्या अकटपथान अढार॥४॥ वैराण ॥ तेल लूण गुलथी हो संनिधि जेकरे । ते गृही नहीं अणगार नित्य तप जाख्यो हो एकवार लोजने । वरजे विसन विकार ॥ ५॥ वैरा ॥ वस्त्र पात्र राखे हो संयम राखवा । नधरे ममता प्रेम । विभूषण
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