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( १६६) सूधे नमें देवता । धरमें शिवसुख होय ॥ १॥ "धर्म मंगल महिमानिलो” जीवदया नित पालीये । संयम सत्तर प्रकार । बारे जेदें तप तपें । धर्म तणो ए सार ॥॥ धर्म ॥ जिम तरुवरने फूलमे। जमरो रस ले जाय।तिम संतोषे साधु आतमा। फूल पीमा नवि थाय ॥३॥ धर्म ॥ इण विधि विचरे गोचरी । वहिरे शुद्ध आहार । ऊंच नीच मध्यम कुले । धन धन ते अणगार ॥ ५ ॥ धर्म ॥ मुनिवर मधुकर सम कह्या। नहिं निश्रा नहिं लोन । साधे लामो यें देहीनें । अणलाधे संतोष ॥ ५॥ धर्म ॥ अध्ययन पहिलो द्रुमपुष्फीने । सखरा अरथ विचार । पुन्य कलस शिष्य जैतसी। धर्मे जय जय कार ॥ ६॥ धर्म ॥ इति श्री प्रथमाध्ययन सकाय सं० ॥
॥ अथ द्वितीयाध्ययन सझाय लिख्यते ॥ ॥ दीदा दोहिली आदरी जी । काम लोग फल गंम। संकटपवसे उख पग पगे जी। वैरागें रंग मांग ॥१॥ मुनीसर धन धनते अणगार । नोगतजी जोग आदरे जी। तेहने हुँ वलिहार मुनीसर धन धनते अणगार ॥२॥ मनवाले जूतो चूकतो जी। नकरे ढील लगार । जाणे न को जग केहनो जी कुंण ढुं कुंणते नारि ॥ मुनी ॥३॥ करिआतपना आकरी जी। कोमल मकरे देह । राग देष तजी पाडूआ जी। जिम सुख पामे अछेह ॥ मुनी ॥ ४ ॥ अग्निकुंम जलतें पके जी। अगंधन कुल साप । वम्युं न वांचे विष वलि. जी । तिम आपणे कुल चाप ॥ मुनी ॥ ५॥ धिग धिग तुं जस वांबतो जी। वांछे वम्युं आहार । जीवाश्री मरवो नलो जी। निर्लज
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