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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१६०) हिस नार रे जाया ॥ हूं न० ॥॥ आदि निगोदे हूं रुट्यो जी, सहिया पुरक अणंत ॥ सासोश्वासें नव पूरीया जी, तेह न जाणू अंत हे ॥ मा० ॥ १०॥३॥ हिवणा तूं बालक अ जी, जोवन नखो रे कुमार ॥ आठ रमणि परणावियो रे जोगवि सुरक अपार रे जाया ॥ हूं नवि० ॥ ४ ॥ जनम मरण निरयातणौ जी, उरक न सहियो जान ॥ वीरजिणंद वखापियो जी, ते मै सुणियौ कान हे मायमी ॥ अ॥५॥ वर कांचलीय जीमणो जी ॥ अरस विरस आहार ॥ लुश पाला नित हीमणो जी, जाणसि तुझ कुमार रे जाय ॥ हूं न० ॥६॥ जमतां जीव अनंत जम्यो जी, धर्म मुहेलो होय ॥ जरा व्यापे जोवन खिसे जी, तब किम करणो होय रे मायमी॥ ॥ ॥ मृगनयणी आवे रमे जी, तो नवसर हार ॥ जोवनजर बोरू नही जी, कांई मूको निरधार कुमारजी॥ हूं न ॥ ॥ हंस तूलिका सेजमी जी,रूप रमणि रस जोग ॥ अतहि सुंहाली देहमी जी, किम दुय संजम जोग रे जाया ॥ हूं न ॥ ए॥ स्वारथनो सहू ए सगो जी, अरथ पखे सहु कोय ॥ विषय विषम महुरा कह्या जी, किम जोगविये सोय हे मायमी ॥ अ० ॥१०॥ खमि ३ माउ पसाय करी जी, में दीधुं तुझ पुरक ॥ दिउँ आदेस जिम टुं सुखी जी, वीर चरणे ट्युं दीरक हे ॥ मां ॥ १० ॥ ११॥ तन फाटे लोयण करे जी, मुख न सहणा जाइ ॥ वह सुखी दुवो तिम करो जी, में दीधो आदेस रे जाया ॥ संयम वि० ॥१५॥ मणि माणक मोती तज्या जी, तोड्यो नवसर हार ॥ मृगनयपी For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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