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( १५५) ॥ अथ सात विसनकी सज्झाय लिख्यते ॥ सात विसनना रे संग मत करो, सुण तेहनो सुविचार विवेकी ॥ सात नरकना रे नाइ सातेई, आप पुरक अपार विवेकी ॥ सा ॥ १॥ प्रथम जूवाने रे विसन पड्यांथकां, पांमव पांच प्रसिद्ध विवेकी ॥ नखराजा पिण इण विसने पड्यो, खोइ सहू राजरिछ वि० ॥ सा ॥२॥ दूसरे मांस जहाण अवगुण घणा, करै पर जीव संहार विवेकी ॥ महासतकनी नारी रेवती, नरक गइ निरधार विवेकी वि०॥ सा ॥३॥ तीजे मदिरा पनि विसनतजी, चित धरी वलि चाह वि० ॥ दीपायण रिषि दूहव्यो जादवे, धारकानो थयो दाह वि. ॥ सा ॥४॥ चोथे विसने वेस्याघर बसै, लोकमें न रहे लाज वि० ॥ कयवन्नादिकनो गयो कायदो, कुविसने रे काज वि० ॥ सा० ॥ ॥ पाप आहे कुविसन साचवै प्राणी हणिये प्रहार वि०॥ मारी मृगली श्रेणिक नृप गयो पहली नरक मकार वि० ॥ सा ॥६॥छे चोरीने विसने करी, जीव लहे पुरस्क जोर वि० ॥ मुंजदेव राजायें मारियो चावो दुमक चोर ॥ वि० सा० ॥७॥ परस्त्रीय संगत कुविसन सातमें, हाणि कुजस बहु होय वि० ॥ राणो रावण सीता अपहरी, नास लंकानो रे जोय वि० ॥ सा ॥ ॥ इम जांणीने लव्य तुमे आदरो, सीख सुगुरुनी रे सार वि० ॥ण नव परजव आणंद अति घणा, कहे ध्रमसी सुखकार ॥ वि० ॥ सा ॥ ए ॥ इति सात विसनकी सज्काय संपूर्ण ॥
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