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( १४९)
प्रकृत तज सहज संतोष जज, लाग श्रुत सांजली धरमधंधे ॥ ० ॥ ६ ॥ सुरकने दुःख विपाक फल दाखव्या, अंग इग्यार में वीतरागे ॥ चिरजयो वीर शासन जिहां सूत्रथी, कवि विनयचंद्रगुण ज्योति जागे || सु० ॥ ७ ॥
॥ अथ इग्यारै अंगकी वर्णना लिख्यते ॥
॥ ढाल वधावाकी ॥ अंग इग्यारे में थुण्या, सहेली ए ॥ आज या रंगरोल कि ॥ स० ॥ नंदीसूत्र मांहि एहनो, स० ॥ नाप्यो सर्व निचोल कि ॥ १ ॥ सहेली ए आज वधामणा ॥ कणी ॥ पसरी अंग इग्यारनी, स० ॥ मुक्त मन मंरुप वेल कि ॥ सींचू ते हरखे करी, स० ॥ अनुभव रसनी रेल कि ॥ ॥ २ ॥ हेज धरी जे सांजलै, स० ॥ कुण बूढा कुण बाल कि ॥ तो ते फल लहे फुटरा, स० ॥ स्वादें तहि रसाल कि ॥ स० ॥ ३ ॥ हरख अपार धरी हियै, स० ॥ अहम्मदावाद मकार कि || जासकरी ए अंगनी, स० ॥ वरत्या जय २ कार कि ॥ स० ॥ ४ ॥ संवत सतर पचावनें, स० ॥ वर्षातु ननमास कि || दसमी दिन सुदि पक्षमां, स० ॥ पूरण थई मन आस कि ॥ स० ॥ ९ ॥ श्रीजिनधर्म सूरी पाटवी, स० ॥ श्री जिनचंद्र सूरीस कि ॥ खरतरगञ्जना राजिया, स० ॥ तसु राजै सुजगीस कि ॥ ६ ॥ पाठक हरखनिधान जी, ज्ञानतिलक सुपसाय कि ॥ विनयचंद्र कहे में करी, स० ॥ अंग इग्यार सज्जाय कि । स० ॥ ७ ॥ इति श्री इग्यारे अंग सज्जाय ॥ ॥ अथ ज्ञानका स्तवन लिख्यते ।।
॥ राग वुमरी ॥ मेरे रे मन मानी ज्ञान जरी, मे० ॥ पर
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