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( १५० )
उपगारी सुगुरु बताई, पांचु नेदें करी ॥ मति श्रुति अवधि वर मनपर्यव, केवल बोध वरी ॥ मे० ॥ १ ॥ तप करि सिदंसनकी, करमेंधन लकरी ॥ सक्रिय संजम करतासुं मिल, सिद्धि रसान धरी ॥ मे० ॥ २ ॥ पूरण पुन्य मिली मोहि सजनी, सकलानन्द दरी, वाल कहै अव विसरत नाही, पल बिन एक घरी ॥ मे० ॥ इति पद ॥
॥ पुनः आगम स्तवनं ॥ २ ॥
श्रुत तहि जलो, संघ सकल आधार नमूं त्रीभुवन तिलो ॥ श्री ॥ अर श्रीवीरजिनंद आख्यो, सूत्रं श्री गणधर - गुरु जाथ्यो, तडुनयथी जे मुनिवर राख्यो | श्रु० ॥ १ ॥ जे हथी जग जाव सकल जाणे, नय एकांत मुनिजन नवि ताणे, निश्चय व्यवहार ते मन आले ॥ श्रु० ॥ २ ॥ जिहां अंग उपांग
तिरुमा, व छेद पयन्ना नहि कूमा, मूलसूत्र नंदी अनु योग चूका ॥ श्रु० ॥ ३ ॥ जिहां निरयुक्ती सूत्रे संगी, बलि जाष्य चूरणी टीका चंगी, पंचम अंगे कही पंचांगी ॥ श्रु० ॥ ४ ॥ जिहां साधु श्रावक मारग लहिये, संवेगपखी वलि सरददिये, ए त्रि वि जवमारग कहियै ॥ श्रु० ॥ ५ ॥ जेहनी अनुदा नित करियै, उपचारे दूषण परिहरियै श्राराध्यां निज अनुभव वरियै ॥ श्रुत० ॥ ६ ॥ जिन श्रागमना जे गुण गावे, शुद्धाशय जे मन में ध्यावे ते क्षमाकल्याण सदा पावै ॥ श्रु० ॥ ७ ॥ इति ज्ञान स्तवनं ॥
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|| ढंढरिषीनी सज्झाय ॥
॥ ढणपिजीने वंदना हूं वारी, उत्कृष्टो अणगार रे
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