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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१७) आश्रव चार पांच इहां आण्या, पांचे संबर धारा ॥ माहामंत्र वाणीमां लहियै, लबधि नेद सुखकारा ॥ आ०॥४॥ सुयखंध एक चै दसमे अंगै, पणयालीस अज्जयणा ॥पणयालीस उद्देस वली पद, सहससंख्यातनी रयणा ॥ श्रा० ॥ ५॥ जे नर सूत्र सुणै नही कानै, केवल पोषे काया ॥ माया मांहि रहै लपटाणा, ते नर इमहिज आया ।। आ० ॥६॥ सूत्र मांहि तो मारग दोय बै, निश्चय नय व्यवहारा ॥ विनयचं कहै ते आदरियै, तज मन मदन विकारा ॥ आवो ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ अथ ११॥ विपाकसूत्र सज्झाय लिख्यते ॥ ॥ ढाल कमखानी ॥ सुणो रे विपाकश्रुत अंग ग्यारमो, तजो विकथा वृथा जे अनेरी ॥ ललित उपांग जसु प्रवर पुष्फचूलिका, मूलिका पाप आतंक केरी ॥ सु॥१॥ अशुन किंपाक सम उकृतफल नोगवी, नरकमें गरक श्रया जेह प्राणी॥ सुकृतफल जोगवी स्वर्गमां जे गया, तास वक्तव्यता इहां श्राणी ॥ सु०॥॥ दोय श्रुत खंधने वीश अध्ययन वलि, वीस उद्देस इहां जिन प्रयुंजे ॥ सहससंख्यात पद कुंद मचकुंद जिम, बहुल परिमल ब्रमर चित्त गुंजै ॥ सु० ॥३॥ सरस चंपकलता सुरन्नि सहुने रुचै, अन्य उपगारनी बुद्धि माटै ॥ सूत्र उपगार तेहथी सबल जाणिय, जेहथी पुरुष सुख अचल खाटै । सु० ॥४॥ बंध ने मोदना बेचं कारण अजै, कृतने सुकृत जोवो विचारी ॥ कृतने परिहरी सुकृतने आदरी, जिनवचन धारियै गुण संजारी ॥ सु ॥५॥म कररे म करो निंद्या निगुण पारकी, नारकी तणी गति कांश बांधै ॥ नारकी For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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