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(१४७) सूत्र सूणो हित आणी, एतो वीतरागनी वाणी हो ॥श्रा० ॥१॥ जसु कट्पावतंसिका नामै, सोहे नपांग प्रकामे हो ॥ श्रा० ॥ एतो श्रागमने अनुकूला, मानु मेरुसिखरनी चूला हो ॥ श्रा ॥५॥ एतो सूत्रनो नाम सुणीजै, तिम २ अंतरगति जी हो ॥ श्रा० ॥ प्रगटै नवल सनेहा, एहथी जलसे मोरी देहा हो ॥ श्रा० ॥३॥ अणुत्तर सुरपदपाया, तेहना गुण इणमें गाया हो ॥श्रा० ॥ नगरादिक नाव वखाण्या, ते तौ उ अंगे अण्या हो ॥ श्रा॥४॥ इहां एक सुयखंध वारू, त्रण वर्ग वली मनुहारू रे ॥ श्रा० ॥ उद्देसा त्रिण सनूरा, संख्यात सहस पद पूरा हो ॥ श्रा० ॥ ५॥ सूत्र सुणावू अमे तेहनें, साची श्रद्धा हुय जेहने हो ॥ श्रा० ॥ श्रोताथी प्रीत लगावू, निंदकने मुंह न लगाउं हो ॥ श्रा० ॥ ६ ॥ जे सुणतां करै बकोर, तेतो माणस नही पिण ढोर हो ॥ श्रा० ॥ कवि विनयचं कहे साचो, श्रुत रंगै सहुको राचो हो ॥ श्रा० ॥७॥ इति श्रीअणुत्तरोवाई सज्जायः॥
॥ अथ १०॥ प्रष्णव्याकरण सज्झाय लिख्यते ।। ॥ ढाल ॥ आधा आम पधारो पूज ॥ ए देसी ॥ दशमो अंगसुरंग सुहावै, प्रष्णव्याकरण इन नामें, सूत्र कल्पतरु सेवे ते तो, चिदानंद फल पामे ॥ आवो २ गुणना जाण तुमने सूत्र सुणाचं ॥ पुष्पकली ज्यूं परिमल महकै, गुरु परागने रागै ॥ तिम उपांग पुष्पिका एहनो, जोर जुगति करि जागै॥ श्रावो ॥२॥ अंगुष्टादिक जिहां प्रकास्या, प्रष्णादिक अति रूमा । ते चै अष्टोत्तर सत ए तो, सूत्र मध्यमणिचूमा ॥ आ० ॥३॥
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